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नाग और
नागिन
होते है रत
जब भी
अभिसार में,
आलिंगनबद्ध
चूमते हुए
एक दूजे को,
प्रेम का आवेग
एक होने की
वांछा,
मिट जाते हैं
विभेद समस्त,
होता है उत्सव/
बस उत्सव
करते हुए
तिरोहित
विष को,
विद्यमान है जो
आवययों में;
हर फुफकार
सर्प-सर्पिनी की
मानो हो
संगीत स्वर्ग का;
बरसता है
अमृत/
केवल अमृत
क्यूँ कि
प्रेम मिलन में
सिवा
अमृत-रस के
रिसता नहीं कुछ भी
बहता नहीं कुछ भी,
बन जाता है
विष भी
अमृत,
कहता हूँ
तभी तो :
प्रिये !
प्रेम में
विष का
अस्तित्व कहाँ ?
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