Sunday, May 30, 2010

मेरे ज़ब्त-ए-ग़म के किस्से....

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मेरे ज़ब्त-ए-ग़म के किस्से, मशहूर हो गये हैं
सुन सुन के चाहने वाले, मगरूर हो गये हैं.

मेरे अंदाज़ जिंदगी के, तबदील हो गये हैं
सितम-ओ-ज़ुल्म उनके, मंज़ूर हो गये हैं.

नज़रें हकीक़तों से, क्यूँ चुरा चुरा रहे हैं
हाथों मोहब्बतों के, मजबूर हो गये हैं.

गम से सहन में बैठे, गीत उनके ही गा रहे हैं
मैदान-ए-इश्क में वो, मंसूर हो गये हैं.

होंशों-हवाश गायब, आँखे किसी की जानिब
लड़खड़ाते हुए लबों पे, मजकूर हो गये हैं.

नींदें उड़ गयी है, रूठे हैं ख्वाब हम से
जब से उस महज़बीं से, महजूर हो गये हैं.

खोये खोये से रहते, हर लम्हे हर घड़ी यूँ
उनके हसीं ख्यालों महसूर हो गये हैं.

रग रग में खून उनका, साँसे हुई अमानत
न जाने क्यूँ मेरे वो, मक्दूर हो गये हैं.

आँखों का रंगी सुरूर, सुकूं दिल का बन गये हैं
मशक्कत किये बिना वो, मय-ए-अंगूर हो गये हैं.

खयालों में गहरे डूबे , होंश गंवाए हुए हैं
ज़ज्बा-ए-तसव्वुर उनके, मख्सूर हो गये हैं.

लाखों ग़मों को सह कर, खुद को मिटा दिए हैं
मेरे यारों सच है फिर भी,मसरूर हो गये हैं.
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मशहूर=प्रसिद्ध, मगरूर=अहंकारी, .मंज़ूर=स्वीकार मंसूर=विजेता, मक्दूर=उर्जा,सम्भावना, मजकूर=बयां, महजूर=विरह्ग्रस्त,वियोगी, महसूर=घिराहुआ, मख्सूर=नशीले,मय-ए-अंगूर=द्राक्षासव, मसरूर=खुश,हर्षित

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