Friday, May 21, 2010

सनद...

फिर होगी मुलाक़ात एक अहद दे गया
अधूरी बात की अनजानी सी सनद दे गया.

निस्बत-ए-हक़ीक थी उसे और ख्वाब था मैं
बिखरे हुए अरमानों को एक लहद दे गया.

साहिल से देखा किया डूबना मेरा तूफाँ में
रूहानी बातों को तडफता इक जसद दे गया.

खुलते रहे अस्रार रफ्ता रफ्ता मुझ पे
मुत्त्मुइन् था हरसू, गिरहें अशद दे गया.

झूठे थे वादे,और झूठे ही फ़साने उसके
खुद को कायनात, मुझे महद दे गया.

संग बना है तकिया ओ चादर ख्वाबों की
हम को वो जीते जी क्यूँ मरकद दे गया.

जुबान पे ना हर्फ़-ए-तलब ना ज़लाल दीद में
जीने मारने का बहाना एक अदद दे गया।
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(अहद=वादा, सनद=प्रमाण, निस्बत=सम्बन्ध, हक़ीक=वास्तविकता, लहद=कब्र, साहिल=किनारा, रूहानी=आत्मिक, जसद=देह, अस्रार=भेद रफ्ता रफ्ता=धीरे धीरे
मुतमुईन = संतुष्ट, गिरहें=गांठे, अशद=बहुत पक्की, कायनात=विश्व
महद=पलना-cradle, संग=पत्थर, मरकद=कब्र, हर्फ़-ए-तलब=इच्छा कि बात, जलाल=क्रोध, दीद=आँख )

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