Tuesday, May 18, 2010

अन्वेषण............


मुस्कुरा रहा है
मानव
विजित कर,
पवन,
अगन,
जलधारा
ज्वारभाटा
समुद्र-तरंगों
चन्द्रमा
अन्तरिक्ष को

करली है रचना
उसने
मस्तिष्क से भी
तीव्र
माईक्रो चिप की,
कर ली है
सृष्टि
अणु शक्ति के
रचनात्मक और
विध्वंसात्मक
उपयोगों की;
जैविक प्रतिकृति
निर्मित कर
चिढ़ा रहा है
वह मुंह
कर्ता का भी...

बहुत कुछ
पाया है और
खोया भी है
बहुत कुछ:
रातों कि नींद
दिन का चैन
विश्वास और मैत्री
स्नेह, प्रेम और वात्सल्य
करुणा और अनुकम्पा
स्वाभाविकता और सहजता
पहचान
पशुओं से
भिन्न होने की
विवेकशीलता.

जुट जाना है
हमें
पुनः
पाने उर्जा

प्रेम की

अंतर्ज्ञान
चेतना व
अनुभूति प्रभु की,
एवं
करना है
अनवेषण
फिर से:
अग्नि का
चक्र का
समय श्रंखला का..

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