Sunday, May 30, 2010

इज्तिरार....

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बुझी हुई अगन में यह कैसा शरार है
जुदा है फिर भी इज्तिरार-ए-दीदार है.

कैसें देखें उनको मिलें उनसे कैसे
फिजाओं में बिखरा धुंए का गुबार है.

उफन रहा है दरिया ये मौजें डराती है हमें
रात है अँधेरी आशियाँ उनका उस पार है

रुसवा किया था ठुकराया था बेदर्दी से उसने
फिर भी ना जाने क्यों उसका इंतजार है.

अपने ज़ब्त पर करते थे यूँ नाज़ हम भी
ना जाने क्यों नहीं आ रहा दिल को करार है.


मायने : इज्तिरार=आतुरता, ज़ब्त=सहनशीलता, करार=चैन, दरिया=नदी, मौजें=लहरें

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