Sunday, May 16, 2010

चाबियों का गुच्छा

मेरे कागजों में अनायास ही उसकी इस कविता कि manuscript मिल गयी है, पुरानी स्मृतियाँ ताज़ा हो रही है, उसके सोचों के दौर सामने आ रहे हैं.......मुझे यह अभिव्यक्ति बहुत अच्छी लग रही है.........यद्यपि आज मैं इसके कंटेंट्स से अपने आपको काफी परे पा रहा हूँ......फिर भी.
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चाबियों के
गुच्छे से
लटका रखी थी
नफ़रत,
संभाल कर
रखी थी
बहुत दिनों
तक,
उन्ही से
खोला करती थी
मैं संबंधों के ताले.

लेकिन जब से
आये हो तुम,
मेरे विस्मृत शब्द !
तब से ना तो
मेरे पास
चाबियों का
गुच्छा है
ना उसमें
लटकने वाली
नफरत.

अब तो
तुम हो
मेरे पास
'मास्टर की'
की
तरहा.




मास्टर की या मास्टर

सोच ने लगा 'विस्मृत शब्द' क्या था............और ख़याल आया कि वह दुनियादारी के झंझटों से दूर जब हुई हर बात पर 'शिव शिव' कहने लगी थी, जप-माला उसकी अभिन्न साथी बन चुकी थी, अधिकांश समय उसका इसी भक्ति भावना व्यतीत होता था, मगर कभी कभी उसको एकांत में आंसू बहाते हुए भी देखता था, और कभी कभी तो उसकी सूनी आँखें भी मुझे आंसुओं से भरी दिखाई देती थी.

मैंने पेज कि बेक-साइड को देखा जहां मेरी यह लिखावट थी.
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यह ताले
यह चाबियाँ
केवल
परिकल्पनाएं थी
तुम्हारे मन की
वास्तविकताओं से
कर के पलायन
आधी कल्पनाओं को रखा (ताले की)
और
आधी के बदले
प्रभु नाम को
अंगीकार कर लिया.
आज भी
संबंधों के ताले
विद्यमान है
तुम्हारे मन में,
खोलने जिन्हें तुम
मास्टर कुंजी बना
कर रही हो उपयोग
शिव नाम का,
जिस शिव ने
नहीं स्वीकारा,
किसी ताले
किसी चाबी
किसी बंधन
किसी परंपरा
किसी विभेद को....

मन में बसी
राग,
द्वेष,
काम,
क्रोध की
चाबियों की जगह
विराजित होंगे शिव
ना ही ताले होंगे
ना ही संबंधों के बंधन
और ना ही छद्म
अनुभव
भक्ति में
ड़ूब जाने के.

शिव 'शब्द' नहीं
नि:शब्द है
स्मृति और
विस्मृति से परे,
मास्टर कुंजी नहीं
मास्टर है....
बहो धारा के संग
जागते हुए
ताकि
नफरतों का बोझ
हल्का हो जाये...

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