Monday, May 17, 2010

विष-वृक्ष


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मैं था कुपित
अपने मित्र से
कह डाला था
मैने उसको
रोष को अपने
था क्षुब्ध
मैं अपने शत्रु से
किन्तु
नहीं किया था
अभिव्यक्त उसे
कोप को अपने...

और
मैं सींचता रहा था
भय-युक्त हो
उस अंकुर को
रात्रि और प्रातः
अनवरत
अपने शीतोष्ण
अश्रुओं से
देता रहा था
आतप
अपनी मोहक
स्मित
एवम
सुकोमल
धूर्त युक्तियों से...

और
होता रहा था
विकसित
निशिदिन वह
अविराम
एक विशाल
वृक्ष के समान,
हुआ था फिर
फलित
एक रक्तिम अनार
किया था
अवलोकन उसकी
दिप्ती का
मेरे उस
नादान शत्रु ने
चूँकि
उसे था ज्ञात कि
वह फल था मेरा...

तोड़ लिया था उसने
मेरे उद्यान से
उस लुभावने
मनभावन अनार को
जब ध्रुव आच्छादित था
सघन तिमिर से,
हो कर हर्षित
प्रभात बेला में
किया था
मैने परिलक्षित,
तले उस
विष-वृक्ष के
पसरा हुआ था
शत्रु मेरा...

उस पल से हूँ
मैं विक्षिप्त
घोर अपराधबोध से सिक्त
क्या हूँ मैं
वधिक उसका
बन सकता था जो
मित्र मेरा,
ऐसा था वह
भयावह सवेरा
सूर्योदय ने
दे दिया था
मेरे निश्वास को
अँधेरा....

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