Wednesday, September 8, 2010

दंभ......

# # #
कैसी
विडम्बना है
यह
अल्प सा साफल्य
दे देता है
वृहत आकार
हमारे अहम् को
बना कर उसे
दैत्य सा,
निकल आते हैं
नुकीले सींग
अदृश्य से
हमारी देह और
बुद्धि में,
बन कर
हिंसक
दंभ में
करने लगते है
हम
तहस-नहस
हर रचना और
संरचना को
भूल कर
अपने हितों को
अन्यों के हितों को
पड़ जाता है मानो
कोई पर्दा
हमारे
विवेक पर......

किन्तु
विपदाओं से
आपूरित
एक नन्ही स़ी लहर भी
दूसरे ही क्षण
बना देती है हमें
क्षुद्र और असहाय
सदर्श उस लघु कीट के
भीगें हो
जिसके पंख
वर्षा के जल में.....

No comments:

Post a Comment