महाराजा धृतराष्ट्र
तथाकथित
पतिव्रता
महारानी गांधारी
संस्कारवश
अहम्वश
भ्रमवश
प्रशंसा की क्षुदा से
ग्रस्त
अथवा
किसी अज्ञात
कारण से
धार चुकी थी
आजीवन
दृष्टिहीनता का
व्रत
लेकर संकल्प
त्याग का
कष्टमय जीवन का
अर्धांगिनी के तपस्विनी
स्वरुप का,
धन्य ! धन्य !
ध्वनियाँ पाई थी
परिवार की
समाज की
किन्तु किया था
विरक्त
स्वयं को
गृहस्थाश्रम के
मातृत्व के
उत्तरदायित्वों से
होकर
अयोग्य
क्षमताहीन…
स्व आरोपित
दृष्टि दोष से
हुई थी
उत्पन्न
पारिवारिक
विश्रीन्खला
अनियंत्रण
संतान
अनुपालन पर;
परिणाम :
चरित्रहीन
संस्कारहीन
दम्भी
सौ पुत्र
जिनका कलुषित
आचरण
नहीं कर पायी
विस्मृत
हमारी संस्कृति…………
No comments:
Post a Comment