Monday, September 13, 2010

थका हारा दीप..


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मैने
लिख लिख कर
फाड़े है
खतूत कई
शब्-ओ-दिन,
इज़हार के नहीं
इन्कार के,
कि करता हूँ
तुझ से
मोहब्बत मैं
बेपनाह...
ना जाने क्यों
मेरी इन
ग़ज़लों की
खुद ब खुद
हो जाती है
इस्सलाह...
कटते हैं
चन्द अशआर
बदल जाते हैं
काफिये ओ रदीफ़,
नींद हो जाती है
जुदा मुझ से
और
बदल कर
करवट
बुझा देता हूँ
संग मेरे
रात भर जगा
टिमटिमाता सा
मेरे ज़ज्बात का
थका हारा सा दीप....

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