यह रचना आदि शंकराचार्य रचित 'भज गोविन्दम मूढमते" से प्रेरित है. इसका सन्देश संसार से पलायन नहीं, जागरूक हो कर वास्तविकताओं को
समझते हुए जीना है, इसमें किसी भी बात को अस्वीकार करने हेतु प्रेरित नहीं किया गया है....बस जो है उसे वैसा समझने का उपक्रम करने को कहा गया है. आत्मा इसी मार्ग को अपना कर 'स्वयं का परमात्मा होना' realize कर सकती है. शब्द जड़मति से तात्पर्य मूर्ख होने से, अज्ञानी होने से नहीं ......जड़मति होने से यहाँ तात्पर्य 'फिक्सड माईंड' होने से हैं अर्थात अज्ञानी होते हुए भी स्वयं को ज्ञानी समझना. यह एक प्यारा सन्देश है जिसमें ज्ञान ध्यान और भक्ति का अनूठा समन्वय है. यह भक्त और भगवान के एक हो जाने की बात है. इस रचना को कुछ हद तक संशोधित भावानुवाद कहा जा सकता है.....शंकर के लिए प्रेम है किन्तु अँधा अनुसरण नहीं......
भक्ति हमें ज्ञान के शिकंजों से मुक्त करा कर हमें ज्ञान का नैसर्गिक लाभ दिलाने का एक जरिया है.......गोविन्द नाम सुमरिन से तात्पर्य सहज हो जाने से है......फिक्सड माईंड से आज़ाद हो जाने से है......जो होना है उसे हो जाने देने के क्रम में आ जाने से हैं.....कर्ता भाव से मुक्त हो जाने से है.
हम विवेकशील आधुनिक सोचों वाले लोगों का एक परिवार है, निवेदन करूँगा कि इस रचना के सहयोग से हम सब अपने सोचों एवम अनुभवों को गति दें.....यह रचना बस एक साधन है....एक औजार है जागरूकता की स्थिति हासिल करने के क्रम में........
* संग्रहण शब्द रचना में 'बटोरने' से आशय लेकर प्रयोग किया गया है.
**रचना में अर्धानिगिनी शब्द का उपयोग हुआ है.अर्धांगिनी से तात्पर्य यहाँ मात्र पत्नि से नहीं किसी भी ऐसे से है जो किसी को अपना समझता है....चाहे पत्नि,पति, प्रेमी,प्रेमिका, नातेदार, बन्धु-बान्धवी कुछ भी कहलाये.
समझते हुए जीना है, इसमें किसी भी बात को अस्वीकार करने हेतु प्रेरित नहीं किया गया है....बस जो है उसे वैसा समझने का उपक्रम करने को कहा गया है. आत्मा इसी मार्ग को अपना कर 'स्वयं का परमात्मा होना' realize कर सकती है. शब्द जड़मति से तात्पर्य मूर्ख होने से, अज्ञानी होने से नहीं ......जड़मति होने से यहाँ तात्पर्य 'फिक्सड माईंड' होने से हैं अर्थात अज्ञानी होते हुए भी स्वयं को ज्ञानी समझना. यह एक प्यारा सन्देश है जिसमें ज्ञान ध्यान और भक्ति का अनूठा समन्वय है. यह भक्त और भगवान के एक हो जाने की बात है. इस रचना को कुछ हद तक संशोधित भावानुवाद कहा जा सकता है.....शंकर के लिए प्रेम है किन्तु अँधा अनुसरण नहीं......
भक्ति हमें ज्ञान के शिकंजों से मुक्त करा कर हमें ज्ञान का नैसर्गिक लाभ दिलाने का एक जरिया है.......गोविन्द नाम सुमरिन से तात्पर्य सहज हो जाने से है......फिक्सड माईंड से आज़ाद हो जाने से है......जो होना है उसे हो जाने देने के क्रम में आ जाने से हैं.....कर्ता भाव से मुक्त हो जाने से है.
हम विवेकशील आधुनिक सोचों वाले लोगों का एक परिवार है, निवेदन करूँगा कि इस रचना के सहयोग से हम सब अपने सोचों एवम अनुभवों को गति दें.....यह रचना बस एक साधन है....एक औजार है जागरूकता की स्थिति हासिल करने के क्रम में........
* संग्रहण शब्द रचना में 'बटोरने' से आशय लेकर प्रयोग किया गया है.
**रचना में अर्धानिगिनी शब्द का उपयोग हुआ है.अर्धांगिनी से तात्पर्य यहाँ मात्र पत्नि से नहीं किसी भी ऐसे से है जो किसी को अपना समझता है....चाहे पत्नि,पति, प्रेमी,प्रेमिका, नातेदार, बन्धु-बान्धवी कुछ भी कहलाये.
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