दीवानी ने मेरी चुटकी ली थी उस दिन, कहने लगी थी आज एक बहुत ही धमाकेदार नज़्म लिखी है, जो कुछ नहीं बस हकीक़त है......
आप में से अधिकांश ने मोहब्बत की है मुखरित या मौन,'ऐसी' भी 'वैसी' भी। सो आप बखूबी जानते हैं कि ऐसे बेगुनाह संवाद आपस में होते ही हैं...बार बार मोहब्बत का इज़हार पाने के लिए......
आप में से अधिकांश ने मोहब्बत की है मुखरित या मौन,'ऐसी' भी 'वैसी' भी। सो आप बखूबी जानते हैं कि ऐसे बेगुनाह संवाद आपस में होते ही हैं...बार बार मोहब्बत का इज़हार पाने के लिए......
बात दीवानी की............
मर्द
रेत पर पड़ी मछलियों की तरह
छटपटाते रहतें हैं
अपनी औरतों के भीतर
उतर जाने के लिए.......
जब होती हैं वे फ़ोन पर
किसी और से वार्तारत
रोक कर सांस रहते हैं
उनके संवादों को
सुनने की कोशिश में........
जब सोती हैं वे
घुस कर उनकी नींद में
देखते हैं उन्हें ख्वाब देखते हुए
डालते हैं विघ्न
जब कि स्वप्न में ही तो
रहता है इंसान पूरा आजाद.......
औरतें जब बावर्चीखाने में
मसरूफ होती हैं पकाने में
चुपके से जा बैठते हैं मर्द
उनकी रोज़मर्रा की
डायरियों में
और पढ़ते हैं उनकी
दिन भर की अंतरंगता को..........
उनके नाम आने वाले
खतों पर रखते हैं नज़र
जैसे जवान होती लड़की पर
रखतें हैं पड़ोसी...........
जब कभी वे जागती हैं
देर रात की फिल्मों की तरह
आधी रात तक
मर्द करवट बदलने के बहाने
आधी आँख से देखते हैं
उनकी सारी हरक़तों को.........
जब औरतें पढ़ती है
कोई ख़त
तब पढ़तें है मर्द
उनकी आँखों को बाक़ायदा
गलती से भी कभी अगर
निकल जाती है कोई ऐसी बात
उनके मुंह से जो
नहीं निकलनी चाहिए तब
खुल जाती है मर्दों की
तीसरी आँख
पलक झपकते ही...............
कुल मिलाकर
मर्दों के तीन चौथाई बसंत
कुम्हला जाते हैं
अपनी औरतों के पहरुआ बनने में
और एक चौथाई पतझड़ झड़ जाते हैं
गैर औरतों का तिलिस्म जानने में.............
फिर भी ना जाने क्यों
है मुझे यकीन कि
मर्दों की दुनिया में
कहीं ना कहीं
कभी ना कभी
मिलेगा जरूर कोई एक
'अपवाद पुरुष'..........................
रेत पर पड़ी मछलियों की तरह
छटपटाते रहतें हैं
अपनी औरतों के भीतर
उतर जाने के लिए.......
जब होती हैं वे फ़ोन पर
किसी और से वार्तारत
रोक कर सांस रहते हैं
उनके संवादों को
सुनने की कोशिश में........
जब सोती हैं वे
घुस कर उनकी नींद में
देखते हैं उन्हें ख्वाब देखते हुए
डालते हैं विघ्न
जब कि स्वप्न में ही तो
रहता है इंसान पूरा आजाद.......
औरतें जब बावर्चीखाने में
मसरूफ होती हैं पकाने में
चुपके से जा बैठते हैं मर्द
उनकी रोज़मर्रा की
डायरियों में
और पढ़ते हैं उनकी
दिन भर की अंतरंगता को..........
उनके नाम आने वाले
खतों पर रखते हैं नज़र
जैसे जवान होती लड़की पर
रखतें हैं पड़ोसी...........
जब कभी वे जागती हैं
देर रात की फिल्मों की तरह
आधी रात तक
मर्द करवट बदलने के बहाने
आधी आँख से देखते हैं
उनकी सारी हरक़तों को.........
जब औरतें पढ़ती है
कोई ख़त
तब पढ़तें है मर्द
उनकी आँखों को बाक़ायदा
गलती से भी कभी अगर
निकल जाती है कोई ऐसी बात
उनके मुंह से जो
नहीं निकलनी चाहिए तब
खुल जाती है मर्दों की
तीसरी आँख
पलक झपकते ही...............
कुल मिलाकर
मर्दों के तीन चौथाई बसंत
कुम्हला जाते हैं
अपनी औरतों के पहरुआ बनने में
और एक चौथाई पतझड़ झड़ जाते हैं
गैर औरतों का तिलिस्म जानने में.............
फिर भी ना जाने क्यों
है मुझे यकीन कि
मर्दों की दुनिया में
कहीं ना कहीं
कभी ना कभी
मिलेगा जरूर कोई एक
'अपवाद पुरुष'..........................
बात विनेश की.......
मैंने उसके पहली रात मुल्ला के साथ पाकिस्तान के आये कवाल्लों के एक बहुत ही शानदार प्रोग्राम में लुत्फ़ लिया था अपने आज़ादी का....हुस्न और इश्क के सवाल जवाब ताज़ा ताज़ा जेहन में थे....मैंने लंच टाइम तक अपनी यह खूसूरत नज़्म उसके हाथ में थमा दी थी........
औरतें
पानी में होकर भी
रहती है मीन सी प्यासी.........
मर्द
जब भी गलती से
कर बैठता है किसी
अन्य नारी के रूप और गुणों का
सही आकलन
लगता है औरत को
जुड़ गए है तार 'उसके'
'उससे' कहीं,
बिना देखे आइना
समझ लेती है
खुद को बदसूरत
बिना जाने समझे
मान लेती है खुद को गुणहीन............
मर्द
जब किसी प्रेम कविता को पढ़कर
मुस्कुरा देता हैं मंद मंद
कनखियों से देख
औरत समझ लेती हैं
बन्दा गया काम से
तसव्वुर में ले आती है
हर उस कवियत्री को
जिसने गलती से कभी
अपने किसी महबूब के लिए
लिख डाली थी वो कविता
बस 'तेरे महबूब' की
ले लेता है जगह
'मेरा प्रियत्तम'
जलन की आग जला देती है
जेहन और तन-बदन.........
दफ्तर के किसी काम से
बैठता है मर्द
किसी क्लब या रेस्टुरेंट की
मेज़ पर किसी मोहतरमा के साथ
और दे देता है
यह खबर मेमसाब को
कोई नाकुछ बन्दा
घी मिर्च लगा कर,
उस कलयुगी हरिश्चंद्र की हर बात
लगने लगती है सांच
मर्द के सही एक्स्प्लानेशन भी
लगतें है महज़ शब्द जाल
सच्चा मर्द भी बन जाता है
उस दिन झूठों का सरताज
उस लम्हे से नहीं
अनन्त काल से..........
किसी पब्लिक गेदरिंग में
हिल स्टेशन
तीर्थ स्थान
रेलवे स्टेशन या
एअरपोर्ट पर
मिल जाती है कोई
पुरानी सहपाठिन
बहुत अन्तराल पर मिलने की
ख़ुशी झलक जाती है
बेचारे मर्द के चेहरे पर
याद कर लेती है
ज़िन्दगी की हमसफ़र
कोई बम्बईया फिल्म
मिल्स एंड बून या
गुलशन नन्दा का
हर उपन्यास...........
मदद कर देता है
मर्द
किसी आफतज़दा खातून की
महज़ हौसला अफजाई के अल्फाज़ या
माकूल मशविरों से
लगता है
जीवन साथी को
छूट गया है साथ बीच राह में
गाने को हो जाता है मजबूर
मर्द बेचारा
चल अकेला चल अकेला ................
शराफत के नाते
कर लेता है मर्द किसी
पुरुष या महिला मित्र से बातें
थोड़ी से ज्यादा
या लगा लेता है कहकहे
किसी और के लतीफों पर
हो जाता है शिकवा :
लिल्लाह ! ऐसा कभी हम से तो नहीं बतियाते
हो जाता है मुंह गुब्बारा सा
बीत जाती है सदियाँ
हवा की निकासी में.........
रिश्तों का यह थोथापन
देखते देखते
घबरा सा गया हूँ मैं
क्यों बनूँ अज़नबी
अपने ही घर में
चार दीवारों से बाहर भी
एक घर है
जिसकी कोई छत नहीं
कायम है जो
खुले आसमान के नीचे
नहीं बनना मुझे
किसी का भी
'अपवाद पुरुष'.............
औरतें
पानी में होकर भी
रहती है मीन सी प्यासी.........
मर्द
जब भी गलती से
कर बैठता है किसी
अन्य नारी के रूप और गुणों का
सही आकलन
लगता है औरत को
जुड़ गए है तार 'उसके'
'उससे' कहीं,
बिना देखे आइना
समझ लेती है
खुद को बदसूरत
बिना जाने समझे
मान लेती है खुद को गुणहीन............
मर्द
जब किसी प्रेम कविता को पढ़कर
मुस्कुरा देता हैं मंद मंद
कनखियों से देख
औरत समझ लेती हैं
बन्दा गया काम से
तसव्वुर में ले आती है
हर उस कवियत्री को
जिसने गलती से कभी
अपने किसी महबूब के लिए
लिख डाली थी वो कविता
बस 'तेरे महबूब' की
ले लेता है जगह
'मेरा प्रियत्तम'
जलन की आग जला देती है
जेहन और तन-बदन.........
दफ्तर के किसी काम से
बैठता है मर्द
किसी क्लब या रेस्टुरेंट की
मेज़ पर किसी मोहतरमा के साथ
और दे देता है
यह खबर मेमसाब को
कोई नाकुछ बन्दा
घी मिर्च लगा कर,
उस कलयुगी हरिश्चंद्र की हर बात
लगने लगती है सांच
मर्द के सही एक्स्प्लानेशन भी
लगतें है महज़ शब्द जाल
सच्चा मर्द भी बन जाता है
उस दिन झूठों का सरताज
उस लम्हे से नहीं
अनन्त काल से..........
किसी पब्लिक गेदरिंग में
हिल स्टेशन
तीर्थ स्थान
रेलवे स्टेशन या
एअरपोर्ट पर
मिल जाती है कोई
पुरानी सहपाठिन
बहुत अन्तराल पर मिलने की
ख़ुशी झलक जाती है
बेचारे मर्द के चेहरे पर
याद कर लेती है
ज़िन्दगी की हमसफ़र
कोई बम्बईया फिल्म
मिल्स एंड बून या
गुलशन नन्दा का
हर उपन्यास...........
मदद कर देता है
मर्द
किसी आफतज़दा खातून की
महज़ हौसला अफजाई के अल्फाज़ या
माकूल मशविरों से
लगता है
जीवन साथी को
छूट गया है साथ बीच राह में
गाने को हो जाता है मजबूर
मर्द बेचारा
चल अकेला चल अकेला ................
शराफत के नाते
कर लेता है मर्द किसी
पुरुष या महिला मित्र से बातें
थोड़ी से ज्यादा
या लगा लेता है कहकहे
किसी और के लतीफों पर
हो जाता है शिकवा :
लिल्लाह ! ऐसा कभी हम से तो नहीं बतियाते
हो जाता है मुंह गुब्बारा सा
बीत जाती है सदियाँ
हवा की निकासी में.........
रिश्तों का यह थोथापन
देखते देखते
घबरा सा गया हूँ मैं
क्यों बनूँ अज़नबी
अपने ही घर में
चार दीवारों से बाहर भी
एक घर है
जिसकी कोई छत नहीं
कायम है जो
खुले आसमान के नीचे
नहीं बनना मुझे
किसी का भी
'अपवाद पुरुष'.............
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