Thursday, October 15, 2009

एक दास्तान : चलते चलते.....

(सिक्के का यह एक पहलू है.......)

..
(१)
ढलती दुपहरी में
मिले थे तुम
तुम भी
बुझे बुझे से थे
हम भी हो गए थे
रीते रीते से
जिन्द का ढोते ढोते बोझा
करते तीन तेरह
तुम्हारी भी हरियाली
सूखने को आई थी
दूब हमारे यहाँ की भी
पीली पड़ चुकी थी
एकरसता ने कर दिया था
नीरस सब कुछ
हम भी बच्चों को
पाल पोष
लिखा पढ़ा
पा चुके थे निजात
तू ने भी छू ली थी
उंचाईयां ज़िन्दगी की........

कहने को जीवन साथी था
हमारा भी
तुम्हारा भी
मगर बरसों
एक छत को शेयर करने में
एक दूजे का दोहन करने में
अपना अपना रुतबा
कायम करने में
तुम से ऊँचा मैं
साबित करने में
एक दूसरे के इतिहास-भूगोल पर
तबसरा तनकीद करने में
साथ रहते रहते
हो गए थे
दोनों अजनबी
मैं और वे
तुम और वह...............

(२)

तुम आये तो लगा
बहारें लौट आई है
पेड़ों पर नए पत्ते
उग आये है
गुलशन में महक है
नए फूलों की
ज़िन्दगी सेज है
जैसे नर्म गुलों की
तुम्हारे सात और
हमारे चार गोलियां खाने का
असर था कि कुछ और मेरे मौला
पाकर इस खिले खिले से साथ को
मेरा दर्दे कमर ओ पीठ था गायब
तुम्हारी चीनी में भी आई थी गिरावट
इश्क की ताक़त ने बना दिया था
हमें चुस्त और तंदुरुस्त
मैं साड़ी ओ सूट से
आ गयी थी वेस्टर्न में
तुम्हारे जर्जर जिस्म पर भी
शोभायमान थे
गुची और वर्साचे
बालों की सफेदी को
छुपा रहे थे
हसीं रंग लोरीअल के
हर नयी मूवी
हर नयी इवेंट में
अपना पाया जाना
हो गया था लाजिमी
बार क्लब रेस्तरां
बन गए थे हमारे हिस्से
बोलचाल की भाषा हमारी का भी
हो गया था आधुनिकरण
हमारे आदर्श अब
बदल कर हमारे ही बच्चों और
उनके दोस्तों में समा गए थे.....
तुम्हारे फ़ोन की हर 'बुज्ज़'
दिल में जलतरंग बजा देती थी
अंखिया बस तुम्हे सिर्फ तुम्हे
देखने को तरस जाती थी
गुनगुनाती थी मैं
मैं वही दर्पण वही
ना जाने क्या हो गया कि
सब कुछ लागे नया नया......

(३)

अचानक लगा था कि
इश्क मुश्क खांसी
छुपाये ना छुपे
मेरी मजबूरी थी,
परदे कि आड़ में
इनसे पोशीदा
सब कुछ कर सकती थी
मगर हाय री दैय्या
जब होने लगे तेरे मेरे
प्यार के चर्चे हर जुबां पर
लगा था
इनको भी हो गया मालूम
और सब को खबर हो गयी
मैंने अपनाया :
'त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यम
देवो ना जानियति किम नरा'
बन गयी सती सावित्री
मुड़ कर एक सौ अस्सी के कोण से
कुछ भी कहो
मैंने तो की थी
तुम से सिर्फ एक पाक दोस्ती
तुम्हारा दूषित मन कुछ और
समझ बैठा तो मैं क्या करूँ ?
मैंने तो किया था
महज़ सौदा मन का
तू ने तन की तिजारत
समझ ली तो मैं क्या करूँ ?
मैंने चाँद और सितारों की
तमन्ना की थी
मुझे रातों कि सियाही के सिवा
कुछ ना मिला...
हदों को जब तब तू ने ही
लाँघने की हिमाकत की थी
माना कि मुझे भी
सब लगता था अच्छा
मैं तो थी निरीह नारी
जिसके अनुभव थे सीमित
तुम तो थे सर्वशक्तिमान पुरुष
क्यों नहीं सोचा
मैं किसी और की अमानत हूँ
कैसे हो सकता है
मैं नसीब हूँ किसी और का
मुझे चाहता कोई और है
तू ने बहकाया बरगलाया
मुझ भोली को
माना कि दोस्ती की थी मैंने तुम से
मगर हमेशा कहा करती थी ना:
मेरा पति मेरा देवता है........



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