Tuesday, October 13, 2009

सिलसिला (आशु रचना)

..

सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा
सितम-ए-यार की
मेहरबानियों में
मैं गलता रहा..........

दिल दिया तो
दगा दिया था उस ने
नज़दीक आया तो
भगा दिया था उस ने
उसकी लगायी आग में
मैं जलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

सीढ़ी समझ कर मुझ को
वो चढ़ता रहा
खाकर ठोकरें उसकी
मैं गिरता रहा
कुचल मुझ को
जमाना चलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

रात-ओ-दिन मेरे साथ
गुजारा करता था वो
मेरी नज़रों से हर इक
नज़ारा करता था वो
मंद होते सूरज के साथ
रिश्ता भी ढलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

उदासियाँ उसकी को
संभालता रहा था मैं
ग़मों को उसके
दिल में अपने
पालता रहा था मैं
मेरी मायूसियों को
कर अनदेखा
वो फलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

मैं मरा तो
लिए आँखों में आंसू
रस्में निभा रहा था वो
अपने नालों को
बुलंदिया दिखा रहा था वो
भरी मुठ्ठियों से
तूफाँ अरमानों का
लहद में डलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

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