Thursday, October 15, 2009

कैसा है यह मिसरा ...( आशु रचना )

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हर कतरे में समा जाये
नाम किसी का
अबोला सा मिलने लगे
पैगाम किसी का
समझना तुम कि
बेला आई है
तुम को तुम से
मिलाने की
गुलशन-ए-रूह में
फूलों को खिलाने की
भटक ना जाना
यह राहें अनजानी है
बालू के टीलों पर
मौजों की रवानी है
शीतल आग का किस्सा
गर्म बर्फ की जुबानी है
ठंडी हवा में हैं तपिश
लू भी कैसी बर्फानी है
इस रेत के समंदर में
खुश्क अश्कों का पानी है
सच-झूठ पुन-पाप की
बातें सब बेमानी है
रूह-ओ-जिस्म का फर्क
अधूरे होने की निशानी है
हर जेहन में बस्ता
बातें कुछ पुरानी है
बेकार है यह बातें
इनमें क्या आनी जानी है
अल्फाज़ के खेल हैं यह
हकीक़त में फानी है
हर ज़ज्ब-ए-शौक की वज़ह
कैद-ए-तन्हाई में
फ़ित्रत इंसानी है
कैसा है यह मिसरा के :

"ज़िन्दगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है........."

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