Monday, October 5, 2009

आवरण.......

..

ना जाने
पहने हुए हैं
हम कितने
आवरण.......... ?

पाखंड नहीं
धोखा नहीं
प्रवंचना नहीं
होते हैं कभी कभी
हमारे मौलिक
नम्र स्वभाव के
परिणाम
शालीन से
आवरण......

औरों के लिए
गहरी
संवेदनाओं
मैत्रीमय
मनोभावनाओं से
उत्पत्त
प्यारे दुलारे
आवरण.........

हम करते हैं
पर्वाह उनकी
व्यथित होते हैं
दुखों से उनके
ओढ़ लेते हैं हम
झीने झीने से
आवरण.......

ज़माने की
चोटों से
बचाने निज को
लपेट लेते हैं
स्वयम पर
गुदगुदे
आवरण.......

होती यह दुनिया
विक्षिप्त सी
आक्रोशमय
हिंसा-प्रतिहिंसा का
नग्न नृत्य कराती
यदि ना होते
हंस की पंखों से
कोमल
आवरण......

हो जाते
धूल धूसरित
निर्मल से
निरपराध
क्षण
यदि ना होते
रक्षक
निरापद
सजग
संगी
आवरण......

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