Wednesday, October 28, 2009

मैं.......(गुप्ताजी की एक ताजी कविता)

मुल्ला नसरुद्दीन मेरे अज़ीज़ हैं वैसे ही एक और अज़ीज़ है 'गुप्ताजी' , याने छेदी लाल गुप्ता 'हापुड़ वाले'.....परचून कि दुकान चलनेवाले गुप्ताजी कविता लिखने का शौकीन है....उनकी कविताओं का उतार चढाव बहुत ही शानदार होता है.....उनके किस्से भी अपने में बहुत मजेदार होते हैं......समय समय पर स्थानीय कवि सम्मेलनों का आयोजन करते रहते हैं गुप्ताजी, संयोजन भी कर डालते हैं.....नतीज़न उन्हें भी अपनी कवितायेँ पेश करने का सौभाग्य मिल जाता है....पिछले सप्ताह गुप्ताजी मिल गए थे पुष्कर राज में......उन्होंने एक कविता सुनाई जो पेश कर रहा हूँ। उनकी कविता में आपको नाना रस मिलेंगे.....

मैं.......(गुप्ताजी की एक ताजी कविता)

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सागर को चुल्लू में भर पी जाऊंगा मैं
पर्वत को लगा ठोकर उखाड़ दूंगा मैं
हवा को बांधना बस खेल है मुझ को
घटाओं को उँगलियों पे नचाउंगा मैं.

यह साँसे चलती है मेरे इशारे पे
यह दुनिया चलती है मेरे सहारे पे
नदियों की कलकल है मेरा करतब
कहने पे मेरे कछुए आते है किनारे पे.

रुपैय्ये की तीन अठन्नी कर सकता हूँ मैं
बिना पम्प टायर में हवा भर सकता हूँ मैं
बनिया हूँ खानदानी फटी बनियान पहने हूँ
धेले-पैसे के खातिर कसम से मर सकता हूँ मैं.

किस जालिम ने यह मधुर राग उधेड़ा है
दुकानदारी के वक़्त यह कैसा बखेडा है
बतियाँ क्यों गुल है डर लग रहा है मुझे
किसने इस ढीले स्विच को अब छेड़ा है.

देशी घी में वनस्पति मिला दूंगा
चावल को कंकर का संग दूंगा
चाय मैं मिला दूंगा लीद घोड़े की
पुराने मसालों को नया रंग दूंगा.

वज़न की बात ना करो ऐ दोस्त !
आदतन मारी मैंने थोड़ी डंडी है
छाछ है गरम मेरे गोकुल में
तासीर-ए-दूध बहुत ठंडी है.

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