मैं.......(गुप्ताजी की एक ताजी कविता)
...
सागर को चुल्लू में भर पी जाऊंगा मैं
पर्वत को लगा ठोकर उखाड़ दूंगा मैं
हवा को बांधना बस खेल है मुझ को
घटाओं को उँगलियों पे नचाउंगा मैं.
यह साँसे चलती है मेरे इशारे पे
यह दुनिया चलती है मेरे सहारे पे
नदियों की कलकल है मेरा करतब
कहने पे मेरे कछुए आते है किनारे पे.
रुपैय्ये की तीन अठन्नी कर सकता हूँ मैं
बिना पम्प टायर में हवा भर सकता हूँ मैं
बनिया हूँ खानदानी फटी बनियान पहने हूँ
धेले-पैसे के खातिर कसम से मर सकता हूँ मैं.
किस जालिम ने यह मधुर राग उधेड़ा है
दुकानदारी के वक़्त यह कैसा बखेडा है
बतियाँ क्यों गुल है डर लग रहा है मुझे
किसने इस ढीले स्विच को अब छेड़ा है.
देशी घी में वनस्पति मिला दूंगा
चावल को कंकर का संग दूंगा
चाय मैं मिला दूंगा लीद घोड़े की
पुराने मसालों को नया रंग दूंगा.
वज़न की बात ना करो ऐ दोस्त !
आदतन मारी मैंने थोड़ी डंडी है
छाछ है गरम मेरे गोकुल में
तासीर-ए-दूध बहुत ठंडी है.
सागर को चुल्लू में भर पी जाऊंगा मैं
पर्वत को लगा ठोकर उखाड़ दूंगा मैं
हवा को बांधना बस खेल है मुझ को
घटाओं को उँगलियों पे नचाउंगा मैं.
यह साँसे चलती है मेरे इशारे पे
यह दुनिया चलती है मेरे सहारे पे
नदियों की कलकल है मेरा करतब
कहने पे मेरे कछुए आते है किनारे पे.
रुपैय्ये की तीन अठन्नी कर सकता हूँ मैं
बिना पम्प टायर में हवा भर सकता हूँ मैं
बनिया हूँ खानदानी फटी बनियान पहने हूँ
धेले-पैसे के खातिर कसम से मर सकता हूँ मैं.
किस जालिम ने यह मधुर राग उधेड़ा है
दुकानदारी के वक़्त यह कैसा बखेडा है
बतियाँ क्यों गुल है डर लग रहा है मुझे
किसने इस ढीले स्विच को अब छेड़ा है.
देशी घी में वनस्पति मिला दूंगा
चावल को कंकर का संग दूंगा
चाय मैं मिला दूंगा लीद घोड़े की
पुराने मसालों को नया रंग दूंगा.
वज़न की बात ना करो ऐ दोस्त !
आदतन मारी मैंने थोड़ी डंडी है
छाछ है गरम मेरे गोकुल में
तासीर-ए-दूध बहुत ठंडी है.
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