Friday, October 9, 2009

तर्पण (आशु रचना)

...

शब्द ना जाने
क्या क्या
अर्थ पाकर
बन जाते हैं रूढियां
'तर्पण' बन गया
देवों और पितरों के
जलार्पण का एक उपक्रम
उच्चारण के साथ ही
याद आ जाते हैं
कुछ जले मुरदे
कुछ गडे मुरदे
चोलों को ही करते हैं
नीर का अर्पण
आत्मा तो अनन्त है
अजर है अमर है
वे देह ही तो थे
जो चले गए
तुम देह भी हो आत्मा भी
मैं भी देह हूँ आत्मा भी
आओ ना हम
क्यों ना करें
'तर्पण'
तृप्ति की इस क्रिया को
बनायें प्राणमय सार्थक......

No comments:

Post a Comment