Wednesday, October 28, 2009

शरीर और आत्मा : गुप्ताजी की एक नज़्म

यह दार्शनिक कविता गुप्ताजी ने उस दौर में लिखी थी जब फेरी लगाकर बिसातीगिरी करते थे याने गली गली घूम कर महिलोपयोगी वस्तुएं बेचा करते थे और दोपहर में शीतल छांव, ठंडा पेय और परसाद पाने के बहाने 'भागवत ज्ञान यज्ञ' या 'संत संगत' में बैठ जाया करते थे....दर्शन और धंधे का अद्भुत समावेश है लाला छेदी लाल गुप्ता 'हापुड़ वाले' कि इस रचना में.......

शरीर और आत्मा
अलग अलग हैं
सासतर भी कहा करते हैं
गाहे बगाहे बुजुर्ग भी
ऐसा ही कुछ फ़रमाया करते है,
शरीर जिनका सचमुच
हो गया है नश्वर सा
कमज़ोर और मजबूर
वक़्त की खाते खाते मार
आत्मा जिनकी बन चुकी है
मज़बूत और मगरूर
जिस्म जिनका
जला करता था
अगन मोहब्बत की में
अब जलने को तैयार है
आग मरघट की में
ऐसे सीनियर सिटीजंस
अपने तुज़ुबों को मुफ्त
हमें लुटाते हैं,
अपनी कमजोरियों को
येन केन प्रकारेण छुपाते हैं
हकीक़तें जिनकी
चली आई है मध्यप्रदेश से
कश्मीर में
कभी कभी ऋषि मुनि से बन
बातें पते की बताते हैं
धंधे के उसूल और
धर्म के सिद्धांत
देखो कितने है समान
माल बेचना हो तो
दूर रखो ये कोमल से अरमान
हसीनो की गलियों में
जब जब फेरी लगाते हो
अपने इश्किया ज़ज्बे को 'लाला'
क्यों धंधे से मिलाते हो
एहसास है उनकी खुशबुओं का तो
ले ले लुत्फ़ बेझिझक ऐ गुप्ते !
मोल भाव के दौर में
क्यूँ ज़ज्बात को खिलाते हो
कंघी, लाली, काजल, आइना, चोली
बेच ले ऐ नफा कमाने वाले
दिवालिया हुए हैं मजनू, राँझा , महिवाल
सब इश्क फर्मानेवाले.....
चेत मानव मूढ़ अज्ञानी
धंधा करते हुए ही प्रेम कर
हे भ्रमित प्रानी ......

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