Monday, October 12, 2009

आशियाना..........

...
देखा है ना
अकेली चिडियां को
बुनते हुए घोंसला !

उड़ती है वो
कभी इधर
कभी उधर
लाती है
चुन चुन कर
हरेक तिनका
जमाती है
सजाती है
तब जाकर बनता है
आशियाना.......

क्या हुआ
मर्द उसका
उठा लाता है
कभी इक्का दुक्का
कोई तिनका,
निबाहने अपना
पुरुष धर्म
जगत व्यवहार.......

सृजन का परिश्रम
मानो कृतव्य हो
मात्र चिडियां का
नितान्त नारी का,
होता है
जिसकी आँखों में
भविष्य का एक सपना
एक अनदेखा सत्य
जो नहीं लेने देता है
उस जननी को
एक पल विराम
निमिष एक विश्राम.....

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