देखता था
दर्पण हर दिन
उस अभिनय को जानने
जिसे ओढे
मैं जिये जा रहा था
ज़माने में......
आज मैं
रुक गया हूँ
थम गया हूँ
देखने अपना असली अक्स
आईने में......
परतें उतार उतार
देखे जा रहा हूँ
नहीं पा रहा हूँ
स्वयम का असली स्वरुप....
समाज, सम्बन्ध, अहम् ,
हीनता, प्रशंसा की प्यास
जीजिविसा, निबाहने का भ्रम,
क्रीड़ा, तृष्णा, इर्ष्या, द्वेष,
मोह, मद, लोभ, भय
और ऐसे ही बहुत
बना चुके थे मुझे बहुरूप.....
प्रत्येक के तर्क थे
हरेक के फर्क थे
खो गया था मैं
जो भी दिखता था दर्पण में
मान लेता था मैं
अपना प्रतिबिम्ब.....
उतार फैंके है आज मैंने
सब आवरण
जिन सा बनने
मैं स्वयम को
रहा था तोड़-मरोड़.........
आज नितांत अकेला
नितान्त नग्न
उपस्थित हूँ
दर्पण के सम्मुख
मुझे दिख रहा है
वह बिम्ब
जिसे अब तक मैं
अपनी कल्पना में
माना करता था
परम अस्तित्व.....
धुल गए हैं आज बहुरूप
निखर गया है मेरा स्वरुप
नहीं है मेरा कोई रूप
मैं तो हूँ अरूप
आज बन गए है सब आवरण
मेरे अनुरूप
हर अभिनय हो गया है जीवंत
नहीं रहा कुछ भी
निर्जीव प्रारूप.............
भाग गया है तिमिर
सब कुछ है आलोकित
देख पा रहा हूँ
स्वयम को
तुम को
उन को
सब वही है
किन्तु मेरी दृष्टि आज
कुछ और पहचान रही है
जो जैसा है
उसे वैसा ही
जान रही है.................
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