अपनी मान्यताओं को गौरवान्वित करना या महिमा-मंडित करना उसकी सहजता में शुमार था. उसका बडबोलापन मुझे अच्छा लगता था, अपनत्व होता है वहां शब्दों के उपरी मायने 'मायने' नहीं रखते, उनमें छुपे एहसास को महसूस करना होता है.कहा करता था मैं, "मैं या तो जी सकता हूँ, या विश्लेषण कर सकता हूँ." अत्यधिक विश्लेषण अपेक्षाओं का गर्भाधान है....क्यों नहीं स्वीकार लेते हम जो अभी
'अपना' 'जैसा' है, उद्यान में रंग रंग के फूल खिलें तो उसका सौंदर्य कई गुना हो जाता है। काश ऐसा हो पाता. वो ठीक ही कहती थी,"तुमको तो बस बात करने का मौका मिले, बहक जाते हो." मैं भी कहाँ से कहाँ पहुँच गया....चलिए उसकी एक कविता को पढ़ा जाये:
'अपना' 'जैसा' है, उद्यान में रंग रंग के फूल खिलें तो उसका सौंदर्य कई गुना हो जाता है। काश ऐसा हो पाता. वो ठीक ही कहती थी,"तुमको तो बस बात करने का मौका मिले, बहक जाते हो." मैं भी कहाँ से कहाँ पहुँच गया....चलिए उसकी एक कविता को पढ़ा जाये:
बात दीवानी की...
# # #
अपने पल्लू में
बांध रखा है
तुम्हारा विश्वास,
पल्लू फटता है
सी देती हूँ
सुई से.
लेकिन कभी सुई
खो जाती है,
कभी धागा,
मैं खोज लेती हूँ
फिर सी देती हूँ.....
इसी
प्रक्रिया में
विश्वास और
पल्लू
बिंध कर
हो गए हैं
छलनी की
तरहा,
लेकिन तब भी
जुड़े हुए हैं वे
सुई और
धागे की
तरहा.....
अपने पल्लू में
बांध रखा है
तुम्हारा विश्वास,
पल्लू फटता है
सी देती हूँ
सुई से.
लेकिन कभी सुई
खो जाती है,
कभी धागा,
मैं खोज लेती हूँ
फिर सी देती हूँ.....
इसी
प्रक्रिया में
विश्वास और
पल्लू
बिंध कर
हो गए हैं
छलनी की
तरहा,
लेकिन तब भी
जुड़े हुए हैं वे
सुई और
धागे की
तरहा.....
मेरी अपनी बात
मैं भी कटाक्ष करने में कम नहीं हूँ, दर्शन कि पढ़ाई की तो तर्क शास्त्र पढ़ा और मैनेजमेंट साईंस में जब रोज़ी रोटी के चक्कर में खुद को डुबोया तो 'लोजिक' पढ़ा, और बचपन में लड़ते हुए लोग/लुगाईओं को देखना मेरा पास टाइम रहा था, सो भाषा में 'एसिड' का पुट हमेशा लगा रहता था (इसी का तो नतीजा है, अब उसकी बातों को याद करता हूँ और ऑरकुट कम्युनिटीज में कवितायेँ पोस्ट करता हूँ..)
फिर बहक गया....हाँ तो गुनी जनों ! मेरा बयान भी थोड़ा सा बर्दाश्त करें:
# # #
क्यों बांधा है
मेरे विश्वास को
अपने पल्लू में
पडोसी से
उधार लिए
आटे की
तरहा
या
दया से मिली
भीख की
तरहा,
विश्वास की
जगह तो
हुआ करती है
दिल में....
बता कोई
कभी
पल्लू में
इतनी बड़ी
दौलत को
रख पाया है
महफूज़....?
रखलो ना
मेरे
विश्वास को
अपने दिल की
गहराई में
शायद
खोज तुम्हारी
सुई धागे की
हो जाये
ख़त्म....
तेरा पल्लू तो
उस दिल
और
विश्वास के
अकूत
खजाने को
बचाने के लिए है
गैरों की 'निगौड़ी'
नज़रों से.
पल्लू तुम्हारा
ढांपे रखता है ना
उस दिल को,
जहाँ
मेरे तेरे
प्यार का
आशियाँ है
और
ख्वाबगाह है
विश्वास की
हमारे...
क्यों आने देती हो
'पाजी'
अविश्वास को
दिल-ओ-जेहन में,
हमारी
ज़िन्दगी में,
सुई की
चुभन की तरहा
धागे की
गांठों की
तरहा.....
फिर बहक गया....हाँ तो गुनी जनों ! मेरा बयान भी थोड़ा सा बर्दाश्त करें:
# # #
क्यों बांधा है
मेरे विश्वास को
अपने पल्लू में
पडोसी से
उधार लिए
आटे की
तरहा
या
दया से मिली
भीख की
तरहा,
विश्वास की
जगह तो
हुआ करती है
दिल में....
बता कोई
कभी
पल्लू में
इतनी बड़ी
दौलत को
रख पाया है
महफूज़....?
रखलो ना
मेरे
विश्वास को
अपने दिल की
गहराई में
शायद
खोज तुम्हारी
सुई धागे की
हो जाये
ख़त्म....
तेरा पल्लू तो
उस दिल
और
विश्वास के
अकूत
खजाने को
बचाने के लिए है
गैरों की 'निगौड़ी'
नज़रों से.
पल्लू तुम्हारा
ढांपे रखता है ना
उस दिल को,
जहाँ
मेरे तेरे
प्यार का
आशियाँ है
और
ख्वाबगाह है
विश्वास की
हमारे...
क्यों आने देती हो
'पाजी'
अविश्वास को
दिल-ओ-जेहन में,
हमारी
ज़िन्दगी में,
सुई की
चुभन की तरहा
धागे की
गांठों की
तरहा.....
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