Sunday, July 18, 2010

कठपुतली......(दीवानी सिरीज)

ना जाने उसे क्यों तरह तरह के एहसास होते रहते थे. अपने को निरीह मजबूर और मुझे दमनकारी साबित करना उसका शगल बन गया था......ना ना कमजोरी बन गया था.
मुझे मालूम था वह मुझ से बहुत प्यार करती थी, और शायद झूठ-मूठ के शिकवे कर के बार बार मुझसे मोहब्बत में भी 'तसल्ली लेने' की मुहीम छेड़ती रहती थी।देखिये उसके शिकवे कि एक बानगी.

खंडित स़ी (दीवानी उवाच)

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रंगमंच के
पुतले तो
हम सभी हैं,
किन्तु
मुझ
कठ-पुतली की डोर
तुम्हारे हाथों में है.

जहाँ घूमते हो
चली आती हूँ
अविचल स़ी
शीतल स़ी,
किन्तु
अब
हो गई हूँ
खंडित सी.....

अबूझ प्रश्न (बात विनेश की)

बखूबी चुप रह सकता था. हर शिकवे का, हर सवाल का कोई जवाब नहीं होता. मगर बुद्धिजीविता कि खुजली बड़ी अजीब होती है, जब एक ने खुजलाया तो दूसरा खुद-ब-खुद खुजलाने लगता है. बस कह बैठा:

# # #

रंग-मंच के
पुतलों के
खेल को
देखना और
समझना है
आसान,
क्योंकि
जो कुछ होता है
घटित
बस होता है
अभिनय मात्र
दर्शकों के
सम्मुख.

किन्तु
काठ की पुतली
जब भी
नृत्य करती है
क्यों हिल उठता है
अंग-प्रत्यंग
नेपथ्य में खड़े
उस सूत्रधार का
जिसके सधे हाथों में
थमी होती है
डोर
उस कठ-पुतली की....

प्रश्न है
विचित्र और
जटिल....
मस्तिष्क को हिला
देनेवाला,
क्या डोर जोडती है
कठपुतली को
सूत्रधार से.....
या जोडती है
अभागे सूत्रधार को
उस टूटी हुई
गुडिया से
जो ना जाने
कितनी बार
तोड़ चुकी है
निरीह
सूत्रधार के
ह्रदय को ?
डोर किस-से
किसको नचवाती है ?
बस यही
अबूझ प्रश्न
अधूरे उत्तर को
साथ लिए
मुंह बाये खड़ा है
आपकी इस
महफ़िल में....


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