इंसानी रिश्तों की फ़ित्रत बड़ी अजीब होती है. कभी लगता है सातवें आसमां पर है, जिन्दगी का सार-तत्त्व मिल गया है, यही जिन्दगी है, तलाश पूरी हुई, ऐसे ही झूमते गाते ताजिंदगी रहेंगे. ......और कभी लगता है यह क्या हो गया ? क्यों कर हुआ ? मुझे सतर्क रहना था ? मैं भावना में बहकर गलत चुनाव कर बैठा/बैठी. मैं बहक गया था/बहक गई थी. अब क्या होगा ? ना जाने कितने अनुतरित, सार्थक/निरर्थक प्रश्न आन खड़े होते हैं.
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उसने ना जाने किस पश्चाताप बोध से यह लिखा था:
"जिस दिन शुरू हुआ था
मेरे जीवन का नया अध्याय
तब एक ही बार में
सब मौसमों से
गुजर गई थी मैं.
दरख़्त हरे हुए
और सूख भी गए
फिर सब कुछ लगने लगा था
अर्थहीन सा और
मैं प्रतीक्षा करने लगी थी
अनागत बसंत की .
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मैं ने कहना चाहा था:
बड़ी जल्दी थी
हम को
जो पहले मिलन पर
लिए फंतासियाँ
भोग चुके थे
सब मौसमों को.
ना हुए थे यह
दरखत हरे और
ना ही सूखे थे वे कभी
अर्थहीन सा कुछ भी नहीं था
सब कुछ था समयोचित
अर्थपूर्ण.
जो हुआ नैसर्गिक था
सहज था
मानवतुल्य था.
यदि भूल भी थी
तो वह तेरी अकेली की नहीं
तेरी मेरी भूल थी.
आओ भूल कर
करें प्रतीक्षा
आगत बसंत की
प्रिये!
पतझड़ अब
जाने को है.
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