Tuesday, July 20, 2010

नाटक (दीवानी सीरीज)

उसके रिश्तों के पैमाने अंगो और उनकी गतिविधियों से परे नहीं जा पाए। देखिये उस दिन उसकी मेज़ से एक तुड़ा मुडा सा कागज़ का टुकड़ा गिरा जिस पर कुछ यूँ लिखा था:

नाटक (बात दीवानी की)

# # #

"फिर वही आवाज़ !
अब तो सब
नाटक सा
लगता है
कभी बर्फ तो
कभी आग...

यह नहीं
सोच पाती कि
शरीर के किस
अवयव से
समझूँ तुम्हे...

विरक्ति स़ी
हो गयी है मुझे
इस नाटक से।"

पटाक्षेप ( प्रलाप विनेश का)

मैं पढ़ कर सिहर गया, मुझे समझ में आया उसके रूखेपन का राज़. उसी कागज़ के टुकड़े में जो बची हुई जगह थी उसमें कुछ ऐसा सा लिख डाला मैने भी:


# # #

मेरी सदायें
हमेशा तेरे
अवयवों को नहीं
तेरे वुजूद को
पुकारती थी...

बार बार
यही आवाज़ मेरे
सारे अस्तित्व से
निकलती थी
तुम मेरी हो
मैं तुम्हारा हूँ
हम बने हैं
एक दूजे के लिए,
तभी तो यह
तीन शब्द
मेरी आवाज़ बन
तुम तक
पहुंचते थे:
इ लव यू.....

मेरी हकीक़त को
तुमने
महज़ एक
नाटक समझा,
मेरी हंसी
मेरी सिसकियों को
तुमने
ज़ज्बात नहीं
अल्फाज़ समझा,

बर्फ और
आग का
यह खेल
शायद तुमने
खेला था....
मैने तो
खुद को
और
तुझ को
जिया था....

विरक्ति
हो गई है
तुझ को
नाटक से नहीं
खुद से शायद...

मेरे बीते हुए लम्हे !
अब इस
एकांकी का
हो चुका है
पटाक्षेप......



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