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"सिवा तिरे
जहाँ का हर ग़म
कदम से कदम मिला
चले जा रहा है
संग मिरे,
सहरा के हरे होने की
उम्मीदों को लिए.
और तुम हो के
जलती हुई शम्मा की
रोशनी में
नहा कर 'बर्फ' हो रहे हो
यह भूल कर कि
शम्मा जल रही है
मौत की जानिब
बढ़े जा रही है
पिघल रही है
क़तरा क़तरा ।"
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मैंने भी दिल्ली की 'शम्मा' में यह लिख भेजा था:
तस्कीन है के
कोई साथ दे
रहा है तेरा
सिवा मेरे भी.
ए मेरी महबूब शम्मा !
मेरे तो फ़ित्रत-ओ-अंजाम है
मिट जाना
जल कर तेरी
लौ में.
उम्मीदों को
कायम रखना
बुझते हुए दम तक
सहरा शायद
हरा ना हो.....मगर
रोशन होगी
जिंदगी जहाँ की
तेरे जलने
और
मेरे जल जाने से.
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