उसकी सारी मुश्किलात और नाकामयाबी का 'सेहरा' मेरे सर बंधता था. ऐसे ही एक दौर में उसने लिखा था:
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जहाँ बाग थे
महल बन गए,
कच्चे रास्ते
सड़क बन गए
लोगों के चेहरे
बदल गए,
किन्तु
जिस मोड़ पर
छोड़ गए थे तुम
मुझ को,
वह वैसा का वैसा
ठगा सा
खड़ा है
आज तक !
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मेरे मनोभाव कुछ यूँ थे :
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जिस मोड़ पर
जुदा हुए थे
हम-तुम
उस मोड़ को
तू ने ही
चुना था.....
महल
बाग
रास्ते
सब जुड़
जाने का ही
अंजाम होतें हैं,
चेहरे भी
बदलते हैं,
चुनांचे
फ़ित्रत
जिन्दगी की...
रिश्तों के
टूटने के
मोड़
होते हैं
मौत की
मानिंद,
तैयार
हर वक़्त
आगंतुक को
अपने
आगौश में
लेने को,
ये मोड़
कभी भी
नहीं रहते
गाफिल और
ठगे ठगे से,
तू ही बता
अब
उस मोड़ की
दास्तान-ए-हकीक़त...
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