दोस्तों, अगले सन्डे खोला उसको----एक कविता थी चिर परिचित अक्षरों में।
गुज़रे लम्हे............(दीवानी)
# # #
कालांतर में
तुम्हारे बिना
हर दुःख
दुनिया का
हो लिया था
साथ मेरे....
आंसुओं की
आंच में
झुलस कर
नीलकमल से
नयनों के कोये
सुर्ख पत्तों सरीखे
हो गए है…
गुज़रे लम्हे
किताब के पन्नो
की तरहा
रहते हैं सामने...
मैं जड़ मूक स़ी
पन्ने पलटती
ढूंढ रही हूँ
राह जीने की....
कालांतर में
तुम्हारे बिना
हर दुःख
दुनिया का
हो लिया था
साथ मेरे....
आंसुओं की
आंच में
झुलस कर
नीलकमल से
नयनों के कोये
सुर्ख पत्तों सरीखे
हो गए है…
गुज़रे लम्हे
किताब के पन्नो
की तरहा
रहते हैं सामने...
मैं जड़ मूक स़ी
पन्ने पलटती
ढूंढ रही हूँ
राह जीने की....
देह्तर से करता प्यार........ (विनेश)
उसको गिफ्ट के लिए शुक्रिया भी लिखना था, क्योंकि उसे ख़याल था की मुझे मनिल की पहली किताब “The Death of Vishnu” खासी पसंद आई थी, और ‘Time’ में उसकी समीक्षा लिखने के बजाय, एक सामान्य पाठक की तरह मैने उसकी शान में कसीदे पढ़ दिए थे.
दीवानी ने उस बात को मद्दे नज़र रखते हुए यह ‘गिफ्ट’ भेजा था, जो मेरे दिल को छू गया था। मैने बहुत ‘थैंक्स’ दिए थे बुक के लिए और अपने ज़ज्बातों को भी मेल किया था .
# # #
तुम में
एक और
तुम है
उसे रहा हूँ
पुकार....
प्रिये !
मैं
नहीं
देह से
देह्तर से
करता प्यार……..
माना कि
मार्ग
पृथक थे
अपने,
जुदा तुम से थे
मेरे सपने,
(पर)
प्रेम सेतु
मध्य था
अपने……
फिर क्यों
किया
तुम ने
मुझ पर
वह प्रहार,
तन को लेकर
करती रही
तुम सदा
मेरी मनुहार,
जीत जीत कर
तुम को
मैं जाता था
खुद से हार…
उन्ही क्षणों के
अतिरिक्त
तुम ने
काश मुझे
जाना होता
सात समंदर पार
तुम्हे वह
घर नहीं
बसाना होता....
माना कि
सुख साधन
मानव को
वांछित होते हैं
किन्तु
इसी बिना पर
क्यों
आदर्श किसी के
बार बार
लांछित होते हैं…..
जुटा लिया हैं
मैने सब कुछ
छीन काल के
दशनों से,
किन्तु नहीं हूँ
मुक्त
आज भी
उन अनुतरित
प्रश्नों से………
पलट रही हो
मूक जड़ स़ी क्यों
पृष्ट पुस्तक
पुरानी के,
आओ मिल कर
जियें साथ में
लिखें काव्य
जिन्दगानी पे......
दीवानी ने उस बात को मद्दे नज़र रखते हुए यह ‘गिफ्ट’ भेजा था, जो मेरे दिल को छू गया था। मैने बहुत ‘थैंक्स’ दिए थे बुक के लिए और अपने ज़ज्बातों को भी मेल किया था .
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तुम में
एक और
तुम है
उसे रहा हूँ
पुकार....
प्रिये !
मैं
नहीं
देह से
देह्तर से
करता प्यार……..
माना कि
मार्ग
पृथक थे
अपने,
जुदा तुम से थे
मेरे सपने,
(पर)
प्रेम सेतु
मध्य था
अपने……
फिर क्यों
किया
तुम ने
मुझ पर
वह प्रहार,
तन को लेकर
करती रही
तुम सदा
मेरी मनुहार,
जीत जीत कर
तुम को
मैं जाता था
खुद से हार…
उन्ही क्षणों के
अतिरिक्त
तुम ने
काश मुझे
जाना होता
सात समंदर पार
तुम्हे वह
घर नहीं
बसाना होता....
माना कि
सुख साधन
मानव को
वांछित होते हैं
किन्तु
इसी बिना पर
क्यों
आदर्श किसी के
बार बार
लांछित होते हैं…..
जुटा लिया हैं
मैने सब कुछ
छीन काल के
दशनों से,
किन्तु नहीं हूँ
मुक्त
आज भी
उन अनुतरित
प्रश्नों से………
पलट रही हो
मूक जड़ स़ी क्यों
पृष्ट पुस्तक
पुरानी के,
आओ मिल कर
जियें साथ में
लिखें काव्य
जिन्दगानी पे......
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