Monday, July 12, 2010

एक सवाल मौसम-ए-बहार से....

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ऐ रुतों के शहन्शाह
बसंत !
अच्छा होता
शिव-शम्भू की
तीसरी आँख से निकले
धधकते शोले
तुम्हारे जिगरी दोस्त
मदन के संग
तुझे भी फूंक देते....

रति के दर्द भरे
नालों ने
पिघला दिया था
भोले को
मिल गई थी फिर से
साँसों की खैरात
रति के घर-वाले को;
मगर तुम तो ठहरे
अल्हड से मर्द एक कुंवारे,
कौन रति
बचाती तुम को.....?


ऐ मौसमे बहार !
देखो क्या हस्र हुआ है
तुम्हारी यारी का ?
कहीं भी नहीं दिखते
तुम दोनों दोस्त संग-संग...
तुम्हारा लंगोटिया
कामदेव
आज भी अकेला
अटखेलियाँ करता है,
डांस-बारों में
पञ्च सितारा सरायों में
नीली फिल्मों में
नए नए खेल रचाने वाले
रिसालों और किताबों में
हुस्न और खूबसूरती के
मुकाबलों में
यहाँ वहां
सब जगह फैले
नंगेपन और
जूनून-ए-जवानी में.....

मगर हे ऋतुराज !
तुमको उजाड़ा जा रहा है
मंसूबों के तहत
खुद-परस्त तहजीबदानों के हाथों,
आज तेरी छत
खुला आसमां भी
ज़हरीले धुवें से ढका है,
‘न नास-ते’ का
वरदान पाकर भी
कुदरत कुम्हला रही है,
कट रहे हैं शजर
जो होते है
आशियाँ तेरे…

रोपे जा रहे हैं
कंक्रीट
और
सीमेंट के जंगल
जिन्हें शहर कहतें है वे,
और
वही पेड़
तुझे पनाह देनेवाले
बनकर दरवाजे ,
फर्श,
सोफे
वार्डरोब ,
शो-केस,
मेज़-ओ-कुर्सी,
सजा रहे हैं
इन ख्वाबगाहों को....

हे बसंत !
क्या चाह कर भी तुम
उतर पाओगे
इन बदले बिगड़े
दरख्तों पर...... ?

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