Friday, July 16, 2010

घर परिवार...

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कैसी यह
कंटीली स़ी
चारदीवारी है
यारों !
जिसे
कहते हो घर
तुम सब....

उदासी के
घाव लिए
जब जब
मैने
रखा था
कदम इसमें
खुले दिल से
छिड़का था
नमक
मेरे अपनों ने.....

जब जब मैं
होकर गया था
खुश
गुनगुनाता सा
झूमता सा
सलीकों का खारा
काढ़ा पिला कर
तोड़ डाला था
मेरी मुस्कानों को....

खून के
रिश्तों को
चुना नहीं
जा सकता,
बाज़-वक़्त
महज़
जाता है
झेला उनको....

शुक्रगुजार हूँ
परवारदीगार तुम्हारा,
कम से कम
तुमने मुझे
नवाज़ा
आज़ादी से
दोस्त
चुनने के
खातिर....

तभी तो
मेरे खुदा
पा रहा हूँ
हौसला
जीने का
इस
चार दीवारी के
बाहिर,
जिसे कहती है
तेरी दुनिया
घर-परिवार....

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