Thursday, July 29, 2010

तारे गगन से : खुला आकाश....(दीवानी सीरीज़)



बाहिर मुल्क में हुई एक सेमिनार में शिरकत कर जब कैम्पस लौटा तो उसका खत मेरा इंतज़ार कर रहा था.....उसमें एक नज़्म थी बहुत ही प्यारी, भावुकता और दृढ़ता से भरी हुई. मैने चुप रहना उचित समझा था. मगर दीवानी ठहरी प्रेम दीवानी, एक दिन डाक में एक पत्रिका अनायास ही मुझे मिली, जिसमें वह कविता 'कमसिन' उप नाम से साया हुई थी. लफ़्ज़ों और तखल्लुस से खेलना शायर/शायरा और मोहब्बत करने वालों का पुराना शगल है....मैने समझ लिया कि यह 'दीवानी' का reminder है.

मैने भी कलम उठाई थी और उस मैगज़ीन के एडिटर को एक खत लिखा था, और एक नज़्म भी भेज दी थी.

कितने तारे गगन से.......(दीवानी/कमसिन)

प्रतिपल तुमको अपने मन के
भाव-जगत में पाया है.
सांस-सांस व्याकुल
अधरों पर
नाम तुम्हारा आया है
मैने काटे पर्वत से दिन
नदियों स़ी लम्बी रातें
पल पल करते सदियाँ बीती
थमी ना अंसुवन बरसातें.
सतत प्रतीक्षा की घड़ियों ने
समय कल्प झुलसाया है……..

कितने तारे गिने गगन से
टूटा नहीं अकेलापन
यह मत पूछो कैसे मुझ को
छोड़ गया मन का यौवन
स्वाति चन्द्र को मन चकोर ने
क्षण भर भी ना भुलाया है.

मेरे विश्वामित्री प्रियतम !
करो तपस्या तुम पूरी
कठिन परीक्षा ही कर देगी
दूर हमारी यह दूरी
सहज मिलन वैसे भी जग को
रास भला कब आया है.

खुला आकाश.........(मेरा प्रत्युत्तर)

ना मैं विश्वामित्र हूँ
और ना ही तुम मेनका हो
तपस्या का शब्द तक
नहीं है कहीं मेरे
जीवन के शब्दकोष में…….

बहुतों ने गिने है तारे
किसी ऐसे की प्रतीक्षा में
जिसको नहीं आना था
चिरकुमारी ना रह जाओ
हे सुभागे !
छोडो यह दीवानापन
आ जाओ आब होश में.

प्रेम वह नहीं जो
तुम पर आच्छादित है
प्रतीक्षा या प्राप्ति
जिस में परिभाषित है
यह तो है एक स्थिति
जिसमें तुम्हे प्रथम
मुझको नहीं स्वयं को
चाहना होगा
कायनात की हर शै से दिल
लगाना होगा………….

यह तारे, यह गगन यह पर्वत, यह नदियाँ
यह वृक्ष, यह चंदा और चकोर
यह पवन, यह बादल , यह झरने
यह बूटे, यह पत्ते, यह फूल
सब होंगे साथी तुम्हारे
भाव जगत के…………
ना होगी पीड़ा भरी प्रतीक्षा,
दुःख से सिक्त अपेक्षा,
ना ही कोई तपस्या
ना ही कोई परीक्षा
बस होगा खुला आकाश और
प्रकृति का मृदुल हास …………

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