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समुद्र मंथन में
देव-असुरों के गठबंधन का
साध्य था पाना अमृत को
साधन बनाया था
विषधारी शेषनाग को
मथानी की रस्सी की तरह;
उगला था हलाहल विष
उस नाग-राज ने…………
हे शिव कल्याणकारी !
छल कपट और स्वार्थ
भरे उन क्षणों में भी
पी डाला था स्वेच्छा से
तुम ने उस घातक गरल को
बचाने संपूर्ण सृष्टि को
सर्वजन हिताय
सर्वजन सुखाय …..
हे विश्वनाथ अक्रूर !
देवों ने पाई थी
बहुमूल्य निधियां
इंद्र ने ऐरावत ,
विष्णु ने लक्ष्मी
अन्य देवों ने
रत्नाभूषण और
अलौकिक शक्तियाँ
असुर अपनी
वासना की कमज़ोरी से
छले गये थे
मोहिनी की मुस्कान से.
हे दिगंबर कालेश्वर सोमनाथ !
इस उहापोह, कपट और
स्वार्थमय स्थिति में भी
तुम रहे थे जागरूक
निस्वार्थ एवं निस्पृह
उड़ेलने कालकूट
को अपने कंठ में
और सती पार्वती ने पकड़ा था
कस कर गला तुम्हारा
रोकने उस जहर को
और बनाया था तुम को
नील कंठ……
हे भोले भस्मेश्वर !
महिमा मंडन से
अनवरत मिथ्या स्तुति से
भ्रमित या प्रभावित हो
तुमने भी स्वीकार लिया था
खिताब महादेव का.
हे अंधकेश्वर अघोर !
उठ गया है एक प्रश्न मन में मेरे:
क्यों नहीं स्थापित किया तुमने कोई
गुरुकुल या विश्वविद्यालय
बन कर आचार्य
करने कायम परंपरा
विषपायी,
निस्वार्थ
कल्याणकारी
शिष्यों की ?
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