अनायास ही उसके सुसुप्त मन की बात शब्दों में ढल कर सामने आ गई:
# # #
"जब अंतर को
छूता है कोई
तब आती है
कविता...
कहती है
आओ
ले चलती हूँ
तुम्हे
उस छोर
जहाँ
नहीं जाती
नाव कोई..."
__________________________________________________________________
मेरे मन का चोर था या ईर्ष्या या अंतर-दृष्टि या साफगोई या 'प्रलाप'...... कह बैठा था:
# # #
हर कोई के
छूने से
भ्रम हो सकता है,
छू रहा है
अंतर को कोई....
और होना
कविता का
किसी के
छूने से
ज्यादा,
खुद के
एहसासों का
उभर
आना होता है...
कविता
कभी कभी
नहीं
ले जाती है
उस छोर पर,
बहा ले जाती है
जानिब
भंवर के,
जहाँ
हर इन्सान
हर नाव
डूब जाते हैं....
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"जब अंतर को
छूता है कोई
तब आती है
कविता...
कहती है
आओ
ले चलती हूँ
तुम्हे
उस छोर
जहाँ
नहीं जाती
नाव कोई..."
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मेरे मन का चोर था या ईर्ष्या या अंतर-दृष्टि या साफगोई या 'प्रलाप'...... कह बैठा था:
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हर कोई के
छूने से
भ्रम हो सकता है,
छू रहा है
अंतर को कोई....
और होना
कविता का
किसी के
छूने से
ज्यादा,
खुद के
एहसासों का
उभर
आना होता है...
कविता
कभी कभी
नहीं
ले जाती है
उस छोर पर,
बहा ले जाती है
जानिब
भंवर के,
जहाँ
हर इन्सान
हर नाव
डूब जाते हैं....
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