Sunday, May 17, 2009

दो नज्में .......

बिना किसी स्वकथ्य या आत्मकथ्य के यह दो नज्में आप से शेयर कर रहा हूँ। दोनों में दो प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति है, दोनों नज्मे एक दूसरे की पूरक है. रचनाओं के लिए कहा जा सकता है की वे उस लम्हे की होती है जब वे घटित होती है, लम्हा बीत जाने के बाद वे अपनी स़ी नहीं लगती, किसी और की लगने लगती है. कुछ कुछ ऐसा ही मुआमला इन नज्मों का है.

कैसे बदल गयी मैं.....( By 'K' )

# # #

आँखे दिखा कर
किसी ने
लूट ली जबरन
मासूमियत
मुझ से मेरी...

चूस लिया
किसी ने
कतरा कतरा
सारा रस
यौवन का,
विवाह व्यापार के उपरांत
मंगलसूत्र के बदले
रख ली
मेरी सारी साँसे गिरवी...

किसी के अहंकार के
विषधर ने
डस ली मेरी
इच्छाओं की देह
मेरी लाज शर्म तक की
लगा दी बोली
दुनियादारी की मण्डी में
शब्दों के संधान से
कर लिया आखेट
मेरी शालीनता के
कंचन मृग का
अंध पुरुष के तानाशाह
बाज़ ने
लिया झपट
मेरी अस्मिता का कपोत
निचौड़ चुका है
अंतिम सीमा तक कोई……….

अपने स्वामित्व के जाल में
फांस ली
मेरी ममत्व की मछलियाँ
मेरे हर मंतव्य के
अर्थ को
अनर्थों की बमबारी से
कर दिया भस्मी-भूत
मेरी भावनाओं का हिरोशिमा
किसी ने……..

और अब
न जाने किस प्रपंच में
पूछ रहे हैं मुझ से सभी
चीख चीख कर
क्या हो गया है तुम्हे ?
जानना चाहते हैं मुझ से
आहिस्ता-अहिस्ता :
कैसे बदल गयी मैं इतना ?
क्या हो गया है मुझे ?

समीकरण अस्तित्व के.....( By 'V')

# # #
सुकोमलता
शालीनता
अस्मिता
ममत्व
भावनाशीलता
पूँजी है तुम्हारी;
भ्रम है तुम्हारा
लूट लिया है
किसी ने….
अमिट वरदान है
यह तो
जो दिया है
प्रभु ने
तुम स़ी
सदात्मा को ,
नहीं हो सकता है क्षय जिसका
न कोई छीन सकता है जिसे
न ही कोई लूट सकता है उसे...

अनपेक्षित
जगत व्यवहार
एवं
यातनाओं ने
गिरा दी है
इमारत मनोबल की,
ढक दिया है मलबे ने
नन्ही भावनाओं को,
आएगी शीघ्र बेला
उसके हट जाने की,
होगा पुनरुत्थान
उसी कोमलता का
उसी पवित्रता का
उसी संकल्पशीलता का
उसी आत्मविश्वास का
उसी संवेदनशीलता का...

विनाश के पश्चात
पुनर्निर्माण
प्रकृति का विधान है,
किस तल पर होगा
यह नैसर्गिक निर्माण
यह पूर्व-नियत* है,
एवं
है भी यह
अवश्यम्भावी,
एक और एक होतें हैं
दो भी और ग्यारह भी,
समीकरण
अस्तित्व के
होतें हैं
विचित्र...


ऐ मेरी बिछुड़ी मित्र !
करो आकलन स्वयं का
स्वयं की शक्तियों का
निज-मेधा का
जीवन-मूल्यों का,
तुम्हारा जीवन है
तुम्हारी अमानत
वो नहीं
पास किसी के
गिरवी रखी जमानत,
दूसरों की नज़रों में
झांक कर जीना
कोई जीना नहीं…..
अन्यों का अनुमोदन
समय की आवश्यकता नहीं
स्वयं की बागडोर
दूसरों को थमा
लचर हो जाना
जीवन का आशय नहीं...

खुद को करना है महसूस
करीब खुद के…….
यह तक़रीर नहीं
सच्चाई है,
सोना तप कर होता है कुंदन
हर वक़्त खुशबू देता है चन्दन,
याद करो
कहती थी तुम ही:
“सुर्खरू होता है इन्सां
ठोकरें खाने के बाद
रंग लती है हिना
पत्थर पे पिस जाने के बाद”...


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