मालूम है मुझे
की ज़माने की दौड़ में
दौड़ते दौड़ते
माशरे की रीत
निबाहते निबाहते
अपनी असुरक्षा के भाव
जीते जीते
जिन्दगानी की तकलीफों को
सहते सहते
लोगों का पाखण्ड
देखते देखते
हो गई है चमड़ी तुम्हारी
मोटी और चेतनाहीन………..
इसी वज़ह से
निकल रहा है क्रंदन
मेरे दिल-ओ-जेहन से,
काट रहा हूँ च्यूंटियां
मैं अपने बदन को
करते हुए लहूलुहान
खुद के जिस्म को
शायद मेरे बहते हुए
सुर्ख खूँ को देख कर
तुम्हे मेरे दर्द का
एहसास हो जाये
मेरे संवेदना के स्पंदन
तुम तक संप्रेषित हो जाये
तुम्हे मेरी नज्मों के मायने
समझ आ जाये……….
(यहाँ बदन/जिस्म/चमड़ी वुजूद/ह्युमन -एस्सेंस के लिए इस्तेमाल हुए हैं)
Wednesday, May 27, 2009
मेरी नज्मों के मायने
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