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मुल्ला नसीरुद्दीन एक दफा एक 'मोटिवेशनल एंड सेल्फ इम्प्रूवमेंट ' कोर्स में दाखिला ले बैठे. बहुत ही ध्यान से वक्तव्य देने वालों की बातों को नोट कर लेते...आनन्दित होते (जैसा कि होता है). एक सैशन में एक स्पीकर बोल रहे थे:
"मैने अपनी ज़िन्दगी के सात साल एक औरत की पनाहों और बाँहों में गुज़र कर सुकूं हासिल किया है.....क्या दिन थे, कितना कुछ महसूस करती थी वोह मेरे खातिर, कितने गहरे थे उसके मोहब्बत के एहसास मेरे लिए, बस मेरे सोचों में डूबी रहती थी वोह हर दम......और मज़े की बात यह है कि वोह मेरी बीवी नहीं थी."
और जनाब स्पीकर चुप हो कर, कबूतर की तरह ऑडिएंस का रिएक्शन देखने लगे. मुल्ला ने भी इस बीच तरहा तरहा की इमेजिनेशन एक्स रेटेड स़ी कर डाली...मुल्ला अपने जेहन में बहुत स़ी रंगीं तस्वीरें पेंट कर रहे थे कि स्पीकर की आवाज़ आयी:
"........वोह तो मेरी माँ थी."
मुल्ला और सबको वैसा ही आनन्द आया जैसा कभी कभार हमें किन्ही मूर्धन्य कवियों का 'क्रिएशन ' पढ़ कर आता है.
कोई भी प्रोग्राम अटेंड करने का क्या फायदा जब तक की उसे जिन्दगी में लागू नहीं किया जाये. मुल्ला नसीरुद्दीन ने सोचा क्यों ना इस चमत्कारी 'अल्फाज़ की जादूगरी' को अपने दौलत-खाने में आजमाया जाये. वीक-एंड की शाम थी. मुल्ला व्हिस्की के कई पैग चढ़ा गए.....खूब मूड में आ गए कहने लगे,"
"बेगम आज मैं एक कन्फेशन करना चाहता हूँ. मैने अपनी ज़िन्दगी के सात साल एक औरत की पनाहों और बाँहों में गुज़ार कर सुकूं हासिल किया है.....क्या दिन थे, कितना कुछ महसूस करती थी वोह मेरे खातिर, कितने गहरे थे उसके मोहब्बत के एहसास मेरे लिए, मेरे सोचों में डूबी रहती थी वोह हर दम......और मज़े की बात यह है की वोह तुम याने मेरी बीवी नहीं थी."
और मुल्ला भी कबूतर बने बेगम के चेहरे को पढने लगे, बेगम सकते में आ गई, पहिले जार जार रोने लगी फिर अचानक चण्डी का रूप धारण कर बरस पड़ी. मुल्ला की सिट्टी-पिट्टी गुम. यह क्या हो गया, इस 'सिचुएशन ' को हैंडल करना तो स्पीकर ने नहीं सुझाया था. और इस गहमा गहमी में वोह 'डायलोग' का सेकेंड पार्ट भी भूल गए.
लड़खड़ाती जुबाँ से मुल्ला ने कहा,
औउर मुझझ्झए याद्द्द्दद नहीं आ रहा है वोह्ह्हह्ह कौन्न्न्न थीं ."
आगे का वाक्य आप सोच सकतें हैं खुद-ब-खुद.
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