Wednesday, May 13, 2009

जरी लाल-एक कहानी

जब जब मुझे अपने काम के सिलसिले में उस शहर में जाना होता है, मेरे अजेंडा में जरी लाल के साथ समय बिताना और बातें करना एक अहम् पॉइंट होता है. जरी लाल कोई अदीब, VIP, politician, सरमायेदार वगेरह नहीं, बस था एक आम इन्सान है, Municipal Corporation का एक भूतपूर्व सफाई कर्मचारी. गौर वर्ण, लम्बा छरहरा बदन, सौम्यता चेहरे पर, एक शांत व्यक्ति…ऐसी है जरी लाल की शख्सियत . कम बोलना, तौल कर बोलना, मुस्कुराते हुए अपना काम किये जाना यह है उसका चलन. मैंने उसे सबसे पहले जब देखा था, कई दिनों इरादतन उसको देखता रहा था.
सुबह जल्दी उठ कर कसरत और meditation करना मेरी दिनचर्या का हिस्सा है. एक दिन भोर के कोई चार बजे होंगे, मैं कुछ गुनगुनाते हुए अनायास ही बालकनी में चला आया. सामने सूनी सड़क एक नदी कि तरहा बिछी हुई थी, निर्जन…दूर दूर तक कुछ भी नहीं था, सिवा पार्क की हुई देशी विदेशी गाड़ियों के और उन पर गिरी ओस की बूंदों के. हरे पेड़ भी शांत खड़े थे, मानो राम प्रसाद बिस्मिल की तरहा खड़े खड़े
नींद ले रहे हों. अचानक एक आवाज मेरे कानों में पड़ी….थोड़ी स़ी घर्षण की, थोड़ी गुनगुनाने की. देखता हूँ, Municipality का एक नुमाइंदा गली बुहार रहा है अपने लम्बे डंडे वाले झाड़ू से, साथ में है कचरा उठाने वाली बड़े बड़े लोहे के पहियों वाली हाथ गाड़ी. झाड़ू और पहिये सड़क के साथ घिस कर आवाज कर रहे थे और वह शख्स ना जाने कुछ गुनगुना भी रहा था शायद कोई प्रभाती:”उठ जाग मुसाफिर भोर भई …अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो सोवत है सो खोवत है, जो जागत है सो पावत है….” या कुछ ऐसे ही लफ्ज़. यह आवाजें चुप्पी को तोड़ सहज ही में अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी. सारा इलाका उस जनवरी की सुबह नींद के आगोश में डूबा हुआ था. पॉश इलाका था इसलिए, लोग देरी से सोते और देरी से उठते थे. अधिकान्शतः नाईट लाइफ के शौक़ीन जो थे, क्या हुआ मेरे जैसा एकाध वाशिंदा ब्रहम मुहूर्त को जानने समझने वाला था. हाँ तो बाद में मुझे पता चला कि उसका नाम जरी लाल था.

मैं मंत्रमुग्ध सा उसके हाथों को चलते हुए देख रहा था और प्रभाती के शब्दों को तो नहीं ‘धुन’ को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा था. बहुत ही कुशलता से जरी लाल अपने काम को अंजाम दे रहा था, एक एक छोटे कागज के टुकड़े या पेड़ से गिरे सूखे पत्ते , या किसी के गफलत से या आदतन फैंके सिगरेट के टुकड़ों, ज़र्दे-गुटके के खाली पॉउच, या ऐसी ही कोई छोटी चीज को जरी लाल बहुत ही ध्यान से हटा रहा था. सड़क को बुहारने का उसका अन्दाज़ किसी सधे हुए साजिन्दे के सारंगी बजाने से कम नहीं था, और उसका कचरे की गाड़ी को हैंडल करने का अन्दाज़ भी अनूठा था. सब कुछ पूरी निष्कपटता और आनन्द से किया जा रहा था. कोई supervision करने वाला नहीं, फिर भी मजाल कि काम में कोई कमी रह जाये….और संग संग उसका वह भजन गुनगुनाना मानो वातावरण को संगीतमय बना रहा था. इस युग में जब कि अच्छे खासे स्टेटस वाले पढ़े लिखे लोग भी अपनी कामचोरी को जस्टिफाई करने में लगे हों, इस सफाई कर्मचारी कि ‘परफोर्मेंस ’ वाकई मनमोहक थी. मेरे मन में जरी लाल के प्रति एक सम्मान की भावना उपज गई. जरी लाल क्रमशः आगे बढ़ गया और मैं भी अपने नित्यकर्मों में लग गया. हाँ उसकी शख्सियत मेरे जेहन में अंकित हो चुकी थी.

दुसरे दिन सुबह मेरा एक इंस्टिट्यूट में व्याख्यान था. मैं venue की तरफ जा रहा था कि नुक्कड़ की चाय-दूकान पर मुझे वह शख्स दिखाई दिया…..मैंने ड्राईवर से गाड़ी रोकने को कहा और उस दुकान पर उसके करीब पहुँच गया. मैंने पूछा, “क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ.” उसने कहा, “नमस्ते प्रोफ़ेसर साहिब, मेरा नाम जरी लाल है, और मैं आपको जानता हूँ.” मुझे आश्चर्य हुआ कि वह अनजान आदमी मुझे क्यों और कैसे जानता है. खैर मैं जल्दी में था और शायद अवचेतन मस्तिष्क में उच्चवर्गीय पाखंड मुझे उससे डिस्टेंस बनाये रखने को भी प्रेरित कर रहा था, इच्छा होते हुए भी मैं कुछ नहीं बोला और वापस कार में सवार होकर रवाना हो गया. मेरे व्याख्यान का विषय उस दिन “एथिक्स एट वर्क प्लेस” था, और एक चतुर बुद्धिजीवी के रूप में मैंने उस दिन जरी लाल की कर्तव्यपरायणता इत्यादि का पूर्ण विदोहन भारी भरकम शब्दों में बांध कर किया था.

उस दिन के बाद जरी लाल को देखना, सुनना, और मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान करना मेरा भोर का रूटीन हो गया था. हम दोनों में एक अबोली स़ी मित्रता जन्म ले चुकी थी और धीरे धीरे पोषित हो रही थी. एक और दिन जरी लाल मुझे उसी चाय-दूकान पर नज़र आया, मैंने उसी दिन की तरहा उस की तरफ बढ़ गया, हाँ अब पाखंड नहीं था, यह उत्कंठा जरूर थी कि वह मुझे कैसे जानता है. प्रनाम-पाती के बाद, जरी लाल पूछ बैठा, “प्रोफ़ेसर साहिब, चाय पीजिएगा ?” उसके कहने में इतना आत्मविश्वास था कि मैं इंकार नहीं कर सका. भाप उड़ाते हुए चाय के कुल्हड़ हमारे हाथों में थे, जरी लाल मुझे किसी भी तरहा मुझ से कम नहीं लग रहा था, सम्मान के एहसास मुझे और उसको मौन रूप में महसूस हो रहे थे.

“सर, आपका लेख- बदलते समय में नैतिक मूल्यों की समीक्षा’ मुझे बहुत अच्छा लगा. किन्तु सारे विवेचन के बीच आपका नैतिकता और अध्यातम के अंतर पर चुप रहना मुझे नहीं रुचा.” आश्चर्य और हर्षातिरेक के उन क्षणों ने मुझे बता दिया था कि जरी लाल मुझे क्यों और कैसे जानता है. पत्रिका में लेख के साथ संपादक ने मेरा सचित्र परिचय भी छाप दिया था. मुझे मालूम हुआ कि जरी लाल ने १९६५ में मिडिल हाई स्कूल प्रथम श्रेणी में पास किया है …..शराबी पिता की अकाल मृत्यु हो जाने पर परिवार की जिम्मेदारियों के साथ एक अदद अर्ध-सरकारी नौकरी भी उसे विरासत में मिली थी. पढने का शौक़ीन होने के नाते जरी लाल बहुत कुछ पढता और सोचता रहता था. काम से काम, फिर पढना, लिखना, गुनगुनाना…बस यही थे जरी लाल के पैशन्स या हौबीस . ना उसे बिरादरी से मतलब था, ना Municipal Corporation की यूनियन बाजी से, ना अछूत और पिछड़ी जातियों की राजनीति से. मैं जितना ज्यादा उसके बारे में जान रहा था उतना ही स्वयं को बौना अनुभव कर रहा था. जरीलाल ने चाय की कीमत का भुगतान किया, नमस्कार कर एक सुझाव देते गया, “ सर आपने, अमृत लाल नागर जी का उपन्यास ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ पढ़ा है क्या ? हमारे जैसों के बारे में उसमें काफी कुछ लिखा गया है.” उसी दिन लौटते समय मैं यह पुस्तक खरीद लाया था और शायद दो सिटिंग में पढ़ भी गया था. मेरे और जरी लाल के वैचारिक आदान-प्रदान का यह सिलसिला उत्तरोतर बढ़ता गया. एक सहज सम्मान की भावना उसके प्रति मेरे मन में और प्रबल होती गई.

एक दिन कोई पांच बजे, मैं ध्यान में बैठा था कि कॉल-बेल बज उठी. दरवाजा खोला तो जरी लाल को सामने खड़े पाया. हाथों में उसके कुछ बण्डल सा था कपड़े का. कहने लगा जरी लाल, “नमस्कार प्रोफ़ेसर साहिब, सुबह सुबह आपको तकलीफ देनी पद रही है, कृपया आप मेरी बात ध्यान से सुने, जो जरूरी भी है और सोचने-करने वाली भी.”
मैंने जरी लाल को अन्दर बुला लिया. खड़े खड़े जरी लाल बोला, “ मेरा लाने का काम पूरा हो गया है, मुझे यह नवजात शिशु सड़क किनारे रखा हुआ मिला है….इसे तुरंत अस्पताल ले जाना है, गाड़ी निकालिए.” वह भी मन से कह रहा था और मुझ में भी यही गूँज रहा था, “बाकी बातें रास्ते में होंगी.” मैंने जल्दी से कपड़े बदले और गाड़ी निकाली . जरी लाल, मैं और वह शिशु, चाइल्ड हॉस्पिटल की तरफ मेरी उस ग्रे रंग की फोर्ड में ‘चाइल्ड केयर इंस्टिट्यूट & हॉस्पिटल’ की जानिब बढ़ रहे थे.

“आज ही की जन्मी है. मैं इसके माँ और बाप दोनों को जानता हूँ. इसकी गरीब माँ ने मजबूरी में क्यों इसको सड़क पर मरने छोड़ दिया, क्यों नहीं इस के बाप- बड़े बाप के बिगडैल बेटे ने इसको नहीं अपनाया, सामाजिक मूल्यों के संक्रमण काल की कैसी परिणीति है….इसके जवाब आप खोजते रहिएगा…..फ़िलहाल यह इस दुनिया में जीने लायक हो सके इसका बंदोबस्त करना है.” जरी लाल चुप हो गया था.

और मैं भी सिर्फ: “ह्म्म्म..” कह कर चुप हो गया था, शायद मेरी बड़ी बड़ी डिग्रियां और सुविधाभोगी बुद्धिजीवी मानसिकता मुझे रोक रही थी. या शायद ऐसे मौकों पर मानवीय संवेदनाओं को जन्म देने के लिए मैं नपुसंक हो गया था. जरी लाल ने आगामी योजना का अनावरण भी कर दिया, “पिता के नाम की जगह मैं अपना नाम लिखा रहा हूँ क्योंकि आप जैसे संभ्रांत व्यक्ति तो इस दलदल में फंसना नहीं चाहेंगे…..मुझे इसका तमाशा भी नहीं बनाना है…..मीडिया के लिए इससे जियादः चटपटी खबर शायद ही कोई और हो इसलिए इसे पुलिस और पब्लिक की नज़रों से भी बचाना है…..बस जैसे तैसे इसे बड़ा कर लूँगा, जितना हो सकेगा पढाऊंगा ….शादी नहीं की इसलिए पत्नि का सुख तो नहीं मिला बेटी का सुख तो पा लूँगा.”

जरी लाल ने अपनी बात कुछ इस तरहा पूरी की, “सर मैं नहीं चाहता कि एक और जरी लाल जैसी कहानी कि पुनरावर्ती हो.

अस्पताल आ गया था, मैंने पोर्च में गाड़ी खड़ी की, जरी लाल बच्ची को लेकर “इमरजेंसी ’ की तरफ बढ़ रहा था….मुझे कहते हुए, “सर आप हॉस्पिटल कि फोर्मलिटी का काम करा दीजिये, तब तक मैं डॉक्टर के हवाले इसको कर, दस्तखत करने आ जाऊंगा.”

पार्किंग-लौट में गाड़ी पार्क कर, मैं रिसेप्शन /एडमिशन काउन्टर पर पहुँच गया था. इस हॉस्पिटल का मालिक मेरा शिष्य डॉ. रोहित जैकब था और मैं उसको फ़ोन भी कर चुका था. मालिक होते हुए भी रोहित शिफ्ट ड्यूटी करता था, और उस समय हॉस्पिटल में ही था. रोहित भी चला आया.

“रोहित क्यों, कब, कहाँ और कैसे मत पूछना…..इस बच्ची को बचाना है….बड़ा करना है……पिता के नाम के खाने में बस मेरा नाम लिख देना, बाकि औपचारिकताएं कैसी पूरी करनी है, तुम समझना.”

“सर, मलका मैडम तो आपसे बिना शादी किये मिडिल ईस्ट में बस गई, क्या………”

“रोहित, MBA से पहिले तुमने MD किया था. बाइलोजी में तुमने ज़रूर पढ़ा होगा कि बच्चे को पैदा करने के लिए कोई नर और मादा होना ज़रूरी है, ऐसा ही कुछ इस केस में भी हुआ होगा….मगर पिता या तात हमारी संस्कृति में पालन करनेवाले को कहते हैं…और वो होऊंगा मैं….क्या इतना काफी है.”

रोहित आखिर मेरा शिष्य था, मेरी तरहा ही अजीब, तभी तो मेडिको होते हुए भी MBA किया था, और फिलोसोफी और अध्यातम में भी रूचि रखता था. जरी लाल पास में खड़ा सब सुन रहा था, बोला, “ ख़ुशी है प्रोफ़ेसर साहिब आपकी आत्मा जिन्दा है.”

आज ‘मैरी ’, मरियम’ या मृणालिनी हार्वर्ड में इकोनोमिक्स की रिसर्च स्कॉलर है, इस सबकान्टिनेंट में उसका रुरल डेवेलोपमेंट और माइक्रो बैंकिंग पर काम करने का इरादा है. शुक्रिया है, मलका का जिसने उसे माँ का प्यार दिया……और जरी लाल मुनिसिपलिटी की नौकरी छोड़ अनाथ बच्चों के लिए स्कूल चलता है. आज भी हम उसी चाय दूकान पर खड़े होकर चाय के कई कुल्हड़ पी जातें हैं……और हर विषय पर ना ख़त्म होने वाली चर्चा करतें है. आज तक मैंने नहीं पूछा और जरीलाल ने नहीं बताया कि मरियम के बाइलोजिकल पेरेंट्स कौन है. वह मलका और मेरी, याने बिन ब्याहे जोड़े की बेटी है. जरी लाल अंकल से मैरी नियमित रूप से बात करती है, उसके स्कूल के लिए कुछ ना कुछ भेजती रहती है. हाँ मृणालिनी भी अपनी माँ मलका की तरह सवाल नहीं पूछती. सभी ने वर्तमान में जीना जो सीख लिया है….और गुरु कोई टेलीविज़न पर दिखानेवाले चोगाधारी सन्यासी नहीं जरी लाल है.

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