Tuesday, September 29, 2009

अमृत........

...

कलमकार
मत बना
कलम को
कुंठित मूर्तिकार की छैनी
भोगी मानव का अलगौज़ा
निर्ल्लज चित्रकार की कूची
यह तो है
साक्षात् सरस्वती
करने आलोकित
आत्मा को
मिटाने जीवन-द्वंद को
पहचान
क्षमता इसकी
गवां मत तू
इसकी नोक से
झरते अमृत को
सस्ती राग-रागिनियों में
व्यर्थ के बिम्ब-प्रतिबिम्बों में
शब्दों के जाल
मिथ्या आलम्बों में........

Monday, September 28, 2009

दशहरा.........

..

बहादुरी के मायने
खून-खराबा और
अतिक्रमण हो गए थे
मानवता
हो गयी थी चैरी
जीत और हार की
इंसान बँट गए थे
दोस्त और दुश्मनों में
शौर्य ने स्नेह को
दिया था पछाड़
तहरीर लिख दी गयी थी
चाहिए और ना चाहिए की
बातें होती थी
अहम् रुतबों और सन्मानों की
फ़र्ज़ के नाम पर चढ़ती थी
बलि अरमानों की.............

छोड़ के तलवार
अपनाया था मैंने
जब कलम को
हंसा था
हर कोई
मुझ पर.........
भूल कर कि
बुद्ध और महावीर भी
क्षत्रिय थे
फर्क इतना था
किसी ने बाहर के शत्रुओं को
जीत कर मनाया था दशहरा
किसी ने अंतर के अरियों को
कर पराजित
सीखाया था विश्व को
प्रेम का ककहरा.......

Sunday, September 27, 2009

किसी से प्यार ना करियो.........

..

किसी से प्यार ना करियो के आहें सर्द दे देंगे
मिला ना जो भी अपनों से तुम्हे नवर्द दे देंगे

गुलों में चुभन होती है
ख़ुशी ग़मगीन होती है
हंसी के बहते आंसू है
खिज़ा रंगीन होती है

ज़माने को ना कह देना पलट कर गर्द दे देंगे
किसी से प्यार ना करियो के आहें सर्द दे देंगे

जो देखा वो नहीं होता
जो सोचा वो नहीं होता
ज़माने का अज़ब दस्तूर
जो चाहा सो नहीं होता

ये नाज़ुक पांव ना धरियो के कांटे दर्द दे देंगे
किसी से प्यार ना करियो के आहें सर्द दे देंगे

लहू हो जाता है पानी
मोहब्बत मायने फानी
सभी मतलब के हैं नाते
करता है क्यूँ मनमानी

आईने देख मत भरमा वे चेहरा ज़र्द दे देंगे
किसी से प्यार ना करियो के आहें सर्द दे देंगे

Saturday, September 26, 2009

शिव तुम बिन अधूरा है.....

(भजन : तर्ज़-ऐ मेरे दिले-ए-नादान तू गम से ना घबराना)
..
मेरे साथ रहो शक्ति
शिव तुम बिन अधूरा है.....

तन मन की कोमलता
दृढ़ता हो विचारों की,
अभिप्रेरणा हो शुभ की
नियंता हो आचारों की.

तुम ना हो तो हे देवी
संसार ना पूरा है
मेरे साथ रहो शक्ति
शिव तुम बिन अधूरा है.....

तुम अध्यात्म की ज्योति हो
ज्वाला हो साहस की
तुम से आलोकित हो
रजनी भी अमावास की

तेरे बल से व्यवस्थित ही
धरती का धूरा है
मेरे साथ रहो शक्ति
शिव तुम बिन अधूरा है.....

करो नाश विकारों का
मिटे भेद आकारों का
जागृत हो मन मेरा
मिटे भ्रम प्रकारों का

तेरी चरणों में ही तो
काबा और मथुरा है
मेरे साथ रहो शक्ति
शिव तुम बिन अधूरा है.....

Wednesday, September 23, 2009

वो ईद.........

(कभी कभी कोई दोस्त कुछ ऐसा पूछ बैठता है कि ना कहते बनता है ना ही चुप होते.....और शुरू हो जाता है फ्लैश बेक.)
..

मिले जा रहे थे
गलों से गले
सीने से लग रहे थे कोई
मौका भी था
दस्तूर भी,
बांटी जा रही थी
खुशियाँ
बिखर रही थी
अत्तर की महक,
मीठी मीठी थी
सिवंयियाँ
खारे खारे से थे
आंसूं
तेरी आँखों के
मेरी आँखों के
ना मिल सके थे वे भी
चेहरे पर फिसल
कुछ गिर गए थे
कुछ सूख गए थे
कुछ का क्या हुआ था
नामालूम,
हम दोनों
अपनी अपनी मौत
बेवक्त
बेमौत
मर गए थे
लोगों ने
ईद मना ली थी
हमारा था
मुहर्रम
हा !............
हम नहीं थे.

सिला दे रहा कोई...........

..

ज़िन्दगी के हर लम्हे का हिसाब ले रहा कोई
गुनाह जो ना किये उसकी सजा दे रहा कोई.

क्यों आया था जमीं पर मकसद था क्या मेरा
हो के मुंसिफ सवालात को अंजाम दे रहा कोई.

लग गयी जो आग अश्कों से क्या कसूर मेरा
चस्मा-ए-मोम से शोलों को बुझा दे रहा कोई.

वो कहते थे के हम से ही रोशन है महफिल
कलाम-ए-रकीब को क्यों दाद दे रहा कोई.

गैरों की बात क्या कहें अपनों की दास्ताँ है
मुठ्ठियों में भरी खाक से सिला दे रहा कोई.

(बकलम : विनेश राजपूत )

Monday, September 21, 2009

मेरा इज़हार बस इशारा है............

....

तुम को सुनना ही बस गवारा है
चुप रहना फैसला हमारा है.

तुम उड़ते जाते हो हवाओं में
हम को जमीं का बस सहारा है.

डूब जाते हैं सफीने बिन तूफाँ के
नसीब होता नहीं किनारा है.

हकीक़तों में जीते-मरते हैं हम
तसव्वुर का जुआ तुम्हारा है.

मीठा मीठा सा हर जर्रा है तेरा
जायका जुबाँ मेरी का जरा खारा है.

बारिश की बूँद है हर लफ्ज़ तेरा
मेरा हर कलाम इक शरारा है.

लुत्फ़ लेते हो तुम हर लम्हे का
यह कैसा मेरा तंगदस्त गुज़ारा है.

ईद के चाँद हो तुम मेरे हमसफ़र
गर्दिश में हर इक मेरा सितारा है.

तुम मैं हूँ मैं हो गया हूँ तुम
कैसा यह मंज़र कैसा यह नज़ारा है.

खुलासा है हर बात तेरी ऐ दोस्त !
मेरा इज़हार बस इशारा है....

Saturday, September 19, 2009

दास्ताँ खूनी (?) रिश्तों की.......

....

खूँ के रिश्तों की या खूनी रिश्तों की बात करते हो
ज़ख्मी हो मगर हस्ती-ए-माशरे की बात करते हो.

ज़ख्म होना है बदन को नश्तर से छुआ करते हो
दर्द सह कर भी मुआफ करने की बात करते हो .

जब तलक ज़रुरत थी तेरा साथ निभाते थे लोग
हो गए तुम नकारा किस एहसां की बात करते हो.

चुनना ओ निभाना सांकलों को ना था तेरे बस में
आजाद हो मुकम्मल क्यूँ कफस की बात करते हो.

खून अपने से सींचा था खून-आलूदा इन रिश्तों को
जीने लगे हो खुद पे क्यों मरने की बात करते हो.

Friday, September 18, 2009

ज़िन्दगी............

मुस्कुराती है लबों पर ज़िन्दगी
छलक जाती आंसुओं में ज़िन्दगी......
जीने की जगमग रोशनी के तले
रोज़ मौत को खोजती है ज़िन्दगी............

काँटों को सहता है फूल कबीले में
प्यास भी रहती है सूखी गीले में
मंजिल से पहले सट मिल कर गले
सुख दुःख की राहें करती है बंदगी
मुस्कुराती है लबों पर ज़िन्दगी
छलक जाती आंसुओं में ज़िन्दगी......

पौ फटी एक दीपक जलकर बुझ गया
बीज गला फिर बूटा भी एक उग गया
करनी से पहले ही जायेगा मर अनायास
यह जान पाया ना करनेवाला ताजिंदगी
मुस्कुराती है लबों पर ज़िन्दगी
छलक जाती आंसुओं में ज़िन्दगी......

दिन हंसा था मार कर अँधेरे को
दिन मरा था गले लगा अँधेरे को
बजरिये जीत-हार के बैलों के
चलता कोल्हू.. बीतती है ज़िन्दगी
मुस्कुराती है लबों पर ज़िन्दगी
छलक जाती आंसुओं में ज़िन्दगी......

Thursday, September 17, 2009

क्या फायदा..............

दरिया के किनारों को मिलना नहीं
इस तरहा दिल लगाने से क्या फायदा
ज़िन्दगी में कभी साथ होना नहीं
दूरियों को मिटाने से क्या फायदा.........

आग मन में यह क्यूँ यूँ सुलग सी गयीं
प्यास तन में यह क्यूँ ऐसे जग सी गयी

जब से कलियों से नज़रें यूँ बचने लगी
हिजाब -ए-गुलशन हटाने से क्या फायदा
ज़िन्दगी में कभी साथ होना नहीं
दूरियों को मिटाने से क्या फायदा.........

आह और चाह में कोई रिश्ता नहीं
मेरे खूँ से यह पानी भी सस्ता नहीं

मेरे ज़ख्मों को धोने से राहत नहीं
मरहम जुबाँ से लगाने से क्या फायदा
दरिया के किनारों को मिलना नहीं
इस तरहा दिल लगाने से क्या फायदा.........

पाक तक़रीर करते बहमन-शेखजी
हो ना हो यह इरादे कोई नेक जी

झूठी बातों को सुन सुन थके मेरे कान
कुरान-ओ-गीता सुनाने से क्या फायदा
ज़िन्दगी में कभी साथ होना नहीं
दूरियों को मिटाने से क्या फायदा........

झूमना ओ बहकना है दिल कि अदा
जाम-ए-सेहत उन्ही के पीये हैं सदा

वल्लाह यारी से प्यारी अदावत मेरी
गम में आंसू बहाने से क्या फायदा
दरिया के किनारों को मिलना नहीं
इस तरहा दिल लगाने से क्या फायदा.........

Wednesday, September 16, 2009

जोगी अटक गया (एक फक्कड़ टेर)...............

हो गयी उसको आस-निरास
जग गयी दिल में अंधी प्यास
अबहूँ आये ना कुछ भी रास
रहता गुम-सुम और उदास
किस में अटक गया
रे जोगी भटक गया !

बस कांटे खुद के झाड़
बनायीं बिरथ ही तू ने बाड़
सबद है झूठी थोथी राड़
कि दे तू पोथी पन्ने फाड़
जेहन तेरा सटक गया
रे जोगी भटक गया !

मन के बंद पटल तू खोल
यह तेरे झूठे से हैं बोल
करे ना खुद का तू क्यूँ मोल
जगत से कैसी झालमझोल
आइना चटक गया
रे जोगी भटक गया !

सुई का नहीं साधा निसान
फजूल में क्यूँ रहता परेसान
सच से रहा सदा अनजान
करता रहा तू बस एहसान
धागा अटक गया
रे जोगी भटक गया !

लीन्ही जप माला तू हाथ
अंतर मन का रहा ना साथ
तेरी निरथक है सब बात
कि जैसे सूखे सूखे पात
बीच में लटक गया
रे जोगी भटक गया !

किसी ने पूछी जात ना पांत
ज्ञान को देखा..देखा ना गात
जोगी को मिल गया ऐसा साथ
कि जैसे बिन बादल बरसात
मनुआ मटक गया
रे जोगी भटक गया.......

Monday, September 14, 2009

हिंदी के विकास में हीन ग्रंथि पाल कर बाधक ना बने..

आज बचपन में एक अध्यापक महोदय से सुनी बात समृति में आ रही है, "हिंदी भारतीय भाल की बिंदी है." मैं अपने प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक स्वर्गीय हरख चन्द जी प्रजापत को प्रणाम करता हूँ, जो यह वाक्य उच्चारित करते थे और हिंदी के प्रति गर्व एवम अनुराग की भावना हम विद्यार्थियों में अभिपूरित करते रहते थे. उन्ही के मार्गदर्शन का परिणाम है कि, 'साहित्य विधा' का औपचारिक अध्ययन मैंने नहीं किया किन्तु भाषा और साहित्य का आनन्द मैं अनवरत ले पा रहा हूँ. मेरा अनुभव यह कहता है कि बच्चों को प्रारंभ से ही हिंदी का ज्ञान कराना, हिंदी-संस्कृत वांग्मय के गौरवपूर्ण भंडार पर गर्व करने की प्रेरणा देना, उन्हें बताना कि हिंदी विश्व की किसी भी भाषा से कम नहीं है, हिंदी और भारत की सेवा के लिए सर्वाधिक सार्थक प्रयास होगा. हिंदी जानना, बोलना, लिखना और पढना बच्चों के लिए गर्व कि बात होनी चाहिए, ना जाने क्यों माता-पिता बच्चों के साथ अंग्रेजी में गिट-पिट करते रहते हैं. उन्हें प्रेरित करते हैं यह समझ मस्तिस्क में उत्पन्न करने हेतु कि हिंदी अपनाना पिछडेपन का
प्रतीक है। कभी कभी हिंदी भाषी लोग भी बहुत गर्व से कहते हैं, "ना बाबा मुझे हिंदी नहीं आती." बहुत ही दुःख की बात है यह.

व्यावसायिक दृष्टी से भी हिंदी का ज्ञान अत्यावश्यक है. विश्व का दूसरा बड़ा उपभोक्ता वर्ग हिन्दीभाषी है, जिन्हें इस वैशवीकरण और बाज़ारप्रणाली के दौर में उत्पादों को बेचा जाना है. विपणन और विज्ञापन के लिए हिंदी अपनाना अत्यावश्यक हो गया है. देखिये-----'कूल कूल' से पहिले 'ठंडा-ठंडा' कहा जाता है विज्ञापन में. कंप्यूटर के माध्यम से भी हिंदी इक्कीसवीं शताब्दी की सफल अभिव्यक्ति का आधार बन चुकी है. वे सभी देश अपनी भाषा को ही ज्ञानात्मकता और भावनात्मकता का अनिवार्य आधार बना चुके हैं, जिन्होंने विश्व में अपना स्थान बनाया है. वैज्ञानिक "टेम्पर" के समस्त कारकों को दूर तक स्वयम में ढालती भाषा हिंदी, हमारी संस्कृति, ज्ञान, दर्शन और अध्यात्म की भी विश्व में संवाहक हो रही है. विश्व कि व्यापारिक विवशता उसके महत्त्व को स्वीकार कर रही है.
हिंदी भाषा देश और विदेश के विस्तृत फलक पर स्वयम बढ़ रही है. आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम उसके विकास और प्रसार में किसी हीन ग्रंथि के चलते बाधक ना बने. अपनी भाषा ही समस्त 'उन्नति का मूल' है., यह आधुनिक हिंदी भाषा के निर्माता भारतेंदु जी ने एक शताब्दी पूर्व ही कहा था, वही हमें आज समझना है.


A Journey To Attainment…….

CONCEIVE
The idea of
What you wish to
Attain
Think of this
Over and over
And
Over and over
Until this becomes
Belief……….

So
You have created
A belief
A constant frequency
That you transmit
And this
Belief
Will create
Your Life
Through the
Law of Attraction
That responds
What you
BELIEVE
And believe me
My friend !
You Will
RECEIVE
You will
ACHIEVE…….

So
CONCEIVE > BELIEVE > RECEIVE/ ACHIEVE

Sunday, September 13, 2009

समूह कि मानसिकता............

मुझे इस कविता के भाव बहुत आकर्षित किये। बिना मूल कृतिकार की अनुमति से मैं ने इसका देवनागरी लिपि में कुछ संशोधनों के साथ पुनर्गठन किया है....मूल भाव जस के तस है, भाषा का प्रारूप भी लगभग वैसा ही है....अनु जी स्वयम भी यदि इसका पुनरवलोकन करते तो ऐसा ही कुछ करते.....मैं उनसे क्षमा प्रार्थी हूँ कि उनकी अनुमति के बिना उनकी रचना पर मैंने संशोधन करने का दुस्साहस किया है, अगर उन्हें ऐतराज़ होगा तो मैं सादर इसे 'delete' कर दूंगा.....आशा है वे मेरे मनोभावों को समझेंगे.

जो हमें बावरा कहतें है,
वो हमें आसरा क्या देंगे ?
मर मर के सींचा जिनको हमने ,
वो फसलें आज जला देंगे .

मेरी हर बात पे जो भी हंसते है,
मुझे भीख में क्यों यूँ दुआ देंगे ?
कुदरत का कहा खलता जिनको
वो अक्स को मेरे मिटा देंगे.

जिनका दिल खाली खाली है
दे कर भी हम को क्या देंगे ?
मेरे आंसू और मेरे ग़म को,
तरकीबों से और बढ़ा देंगे.

"कोई मन्दिर में नही रहता अब "
यूँ कहने पे मेरे बद दुआ देंगे ,
चुभते तानों से मेरी इज्जत पे,
नास्तिक का चिह्न बना देंगे .

जिस गली से मैं गुजरा फिर से
तमाशा वो कोई बना देंगे ,
जिल्लत से दबे मेरे कन्धों पर
बोझा कुछ और चढा देंगे.

कुछ बहलाकर कुछ फुसलाकर
मरने की सलाह मुझको देंगे,
कभी भूल के जो यह सांस भरूं
मुझको फिर याद दिला देंगे.

मेरा इन्सां होना जिन्हें गवारा ना हो,
किसी तरहा भी मुझे हरा देंगे ,
मेरी हार पे जश्न मनाएंगे
मेरी हर इक आस भुला देंगे .

जब तक रहूँगा जिंदा मैं
मुझे तरहा तरहा सतायेंगे
मरने पे समाधी पर मेरे
वो मंदिर भव्य बनायेंगे.

महावीर को कीलें ठोंकी थी
शंकर को ठुकराया था
दयामूर्ति यीशु मसीह को
लोगों ने शूली पर चढाया था.

समूह की यह मानसिकता है
असुरक्षा स्वार्थ अतिशयता है
कैसे मुझे बर्दाश्त करेंगे वो
केवल सच मेरी आवश्यकता है.........

बातें जागृत मन की............

१)

बातें होती
पाप पुण्य की
होती बातें
इन्द्रिय-दमन की
बातें होती
विचार शमन की
कर लें बातें
जागृत मन की.........

२)

इन्द्रियों के सहारे
जग है दृष्टव्य
रूप
रस
गंध
शब्द
स्पर्श........
प्रदत है
जग के मंतव्य.......

३)

खो जाते क्यों
चकाचौंध में
बन अतीन्द्रिय हम
जियें बौध में ..............

४)

शब्द तीन
का लें हम
प्रमेय
ज्ञेय
हेय
एवम
उपादेय ..........

५)

ज्ञेय
विश्व का
प्रत्येक पदार्थ
प्रिय अप्रिय
अनुभव का स्वार्थ
साक्षी भाव से
हम अपनायें
रग द्वेष विमुक्त
हो पायें......

६)

देखें
जाने
परखें सब को
हेय जो हैं
त्यागें हम उस को,
उपादेय को हम अपनाएं
विवेक जनित
प्रसन्नता पायें.........

७)

क्यों हों
हम इन्द्रिय
वशीभूत
कर दमन बने
हम क्यों
अवधूत..........

जागृत हो
हम जीते जायें
अमृत
जीवन का
पीते जायें............


मोहब्बत मुल्ला की.........

आदमी बड़ा ही अजीब जंतु है. हर बात को अपने तौर पर देखता है और उसका इंटरप्रेटेशन भी तदनुसार करता है. कभी कभी तो ऐसा भी होता है वह देखता कुछ है, सोचता कुछ है, निरूपण कुछ करता है किन्तु बारी जब कहने कि आती है वही कहता है जो उसके मनोनुकूल हो, हितों के अनुसार हो, या जो उसे किसी भी काल्पनिक अथवा वास्तविक असुरक्षा से टेम्परेरी रिलीफ उपलब्ध करा सकता हो. कभी कभी व्यक्तियों के वचन उनके माहौल, धंधे अथवा मान्यताओं के अनुरूप भी होते हैं. कहने का तात्पर्य यह कि बोले या लिखे गए शब्द बहुत ही इंटरेस्टिंग मौके देते हैं सोचने समझने और हंसने के.

मिसाल के तौर पर इश्क में डूबे लोगों के संवाद लीजिये. एक हलवाई अपनी प्रेमिका से कहेगा :
"रसीली ! तुम तो इमरती कि तरह हो, रस से सरोबार, तरह तरह के घुमाव लिए हुए, तेरी खुशबू देशी घी की सौंधी सौंधी मेह्कार है......जी करता है कि ....."
रसीली रेस्पोंड करेगी, " मीठा लाल ! तुम भी तो पेड़े की तरह सॉलिड हो........और घुल भी जाते हो.....मगर क्या करूँ मुझे तो मीठे के साथ नमकीन भी भाती है......कभी मीठा- कभी नमकीन, फिर मीठा......."
मीठा लाल कहेगा, "रसीली मेरी जलेबी ! जमाना बदल गया है, हलवाईयों के यहाँ भी R & D होने लगी है, काहे फ़िक्र कर रही हो तेरे लिए मैं 'two-in-one' बन जाऊंगा."
रसीली कहेगी, "नहीं खानी हमें तुम्हारी 'two-in-one' मीठा के बाद नमकीन चाहिए...उंह..."

एक और मिसाल. खानदान से शासक, न्यायाधीश और सलाहकार हैं ना हम, फरियाद सुनना, उसपर माथा पच्ची करना, भाषण देना, फैसला करना.....हमारी फ़ित्रत हो गयी है. आजकल किसी को सलाहकारी के लिए वक़्त नहीं, कोई टेम खोटी नहीं करता मगर हम है कि इन्तेज़ार में रहते हैं कि कोई मुर्गा फंसे......तरह तरह के मुआमले आ जाते हैं हमारे पास विचार विमर्श और पंचौट के लिए. एक बार किसी कंपनी के दो अफसरों ने मिलकर घोटाला किया परचेज में. 'बूटी' के बंटवारे को लेकर मतभेद हो गया.......चले आये दोनों नमकहराम हमारे पास अपनी फरियाद लेकर. मैंने सोचा अनैतिक कार्य किया है इन लोगों ने. मुझे इसमें कोई भी रूचि नहीं लेनी चाहिए. मगर 'पंच बाज़ी' कि खुजली दोस्तों बड़ी तीखी होती है. बुद्धि ने बोला- "मासटर ! तुम्हारा काम तो 'डिस्पुट' को समझ कर निर्णय करना है....जो विद्यमान है दोनों के बीच."
खैर हमने इजलास लगायी. सुनवाई की....

श्याम लाल बोला---"सर जी ! यह राम लाल बड़ी कुत्ती चीज है. देखिये ना इसने कितनी बेइमानी की है, 'किक बेक' की रकम मुझे ठीक से नहीं बताई."

रामलाल ने अपना पक्ष रखा--- "सर जी ! आप इसकी बातों में बिलकुल मत आना. श्याम लाल झूठा है एक नंबर का झूठा. 'टेक्नीकल स्पेसिफिकैशन्स' को अप्रूव करने में इसने तन और धन दोनों पाए थे , मगर मुझे भनक तक नहीं होने दी. यह तो मैं भी उस गेस्ट हाउस में ठहरा तो केयर टेकर से मालूम हुआ......"

श्यामलाल बोला-"सर जी ! बड़ा कमीना और ऐय्यास है यह रामलाल्वा, पूछिये इसे, क्यों गया था वहां....क्या इसने भी वहां जो कुछ पाया मुझे बताया...गया गुज़रा कहीं का."

देखिये दोनों चरित्र आत्माएं कैसे कैसे निर्वचन कर रही है. अपने साथ जो हुआ वह धोखा है, मैंने किया वह ठीक, मगर दूसरे ने किया वह ऐय्यासी है, बेईमानी है..... और तुर्रा यह कि दोनों एक नंबर के पाजी हैं.

कोई ईमानदार अफसर गलत काम नहीं होने देता तो कहा जाता है : " बनर्जी बड़ा बदमाश है, बेवकूफ भी, साला घिसे कपडे पहनता है मगर जो देते हैं उसे रिफ्यूज करता है, क्या हुआ जो बहुत पढ़ा लिखा है...MA Phd है अक्ल हम मेट्रिक फैलों जैसी भी नहीं...उंह...."

आप सोचेंगे तो ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे. कहने का मतलब यह है कि इन्सान अपने अनुसार घटनाओं, बातों, व्यवहार आदि का निर्वचन करता है, सत्य को 'इग्नोर' करने में ही उसे ' कम्फर्ट ज़ोन ' मिलता है.

अब मुल्ला की ही लें. जवानी के दिनों मुल्ला एक करोड़पति बाप की बेटी के प्रेम में था और कहता था : "चाहे जीवन रहे कि जाये, तुझे नहीं छोड़ सकता. मरने को तैयार हूँ, अगर ऐसी कोई नौबत आ जाये. शहीद हो सकता हूँ, मगर तुम्हें नहीं छोड़ सकता....साथ जियेंगे साथ मरेंगे...."

एक दिन लड़की बहुत उदास सी थी. उसने नसरुद्दीन से कहा, " सुनो ! मेरे बाप का दीवाला निकल गया वह सड़क पर आ गया."

मुल्ला बोला, " मुझे पहिले से ही मालूम था कि तेरा बाप ज़रूर कुछ ना कुछ गड़बड़ खड़ी करेगा और हमारी शादी नहीं होने देगा."

मुल्ला विवाह जिस वज़ह से कर रहा था, वह ख़त्म हो गयी थी, मगर मुल्ला कि कसक उस से ऐसा कहला रही थी....लोजिकली बाप के सर ठीकरा फूटा रही थी.

हमारे रिश्ते..... हम कहतें कुछ और हैं , कारण उनका कुछ और ही होता है. हम बताते रहते कुछ और हैं ....मज़े की बात यह है कि हम जो बताते हैं, हो सकता है कि हम वैसा ही मानते रहे हैं...कि यही सच है. हम इस तरह खुद को भी धोखा दे लेते हैं. हम सिर्फ दूसरों को धोखा देते हैं केवल ऐसी बात नहीं, यह करम हम खुद पर भी कर लेते हैं. बड़ा चतुर चालाक है आदमी ......खुद को भी धोखा दे लेता है.








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Saturday, September 12, 2009

बाकी तो बस राम ही राखे ~!

रहते हैं हम एक मकाँ में
कहने को परिवार हैं हम
समझ गये हम इक दूजे को
करते छद्म व्यवहार हैं हम
क्यों ना हम अंतर में झांके
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

मुस्कान हमारी एक छलावा
मीठी बातें हैं बहकावा
छुरी कतरनी मन में चलती
प्रेम भाव का करें दिखावा
देने से पहले ; क्यूँ नहीं चाखें
बाकी तो बस राम ही राखे~!

बातें करते हम एकत्व की
करें हरक़तें हम पृथकत्व की
दूजे की नहीं चिंता हम को
स्वार्थपरता है बात महत्त्व की
रिश्तों की यूँ काटें शाखें
बाकी तो बस राम ही राखे~!

अहम् पोषण प्रमुख मंतव्य है
ना पथ है ना ही गंतव्य है
जुदा है डफली राग जुदा है
कैसे ये संकीर्ण वक्तव्य है
चुन्धियाई है क्यूँ ये आँखें
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

पर उपदेश कुशल बहुतेरे
गणित मिलाते तेरे मेरे
संशय घोर जमाये डेरे
निज हित के लगते हैं फेरे
मैं परितृप्त, तेरे हो फाके
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

अँधा दर्पण अँधी सूरत
दृष्टि में है भंगित मूरत
ह्रदय भ्रमित है कुंठित है मन
रूह प्यासी और प्यासा है तन
कैसे ये जीवन के खाके
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

यारी में क्योंकर यह शर्त है
एक हैं हम तो क्यूँ यह परत है
रिश्तों की बुनियाद गलत है
हार जीत की क्यूँ यह लड़त है
रोयें क्यूँ ?... मुस्काएं गा के
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

Friday, September 11, 2009

परमात्मा.......


खोजा उसको
यहाँ वहां
सब जहां
छुपा बैठा है वो
कहाँ कहाँ कहाँ ????????

बताया था फकीर ने :

होता है जहां
गुरुर-ओ-गफलत का खात्मा
वहीँ पर मिलता है
आत्मा से परमात्मा......

मुल्ला की घड़ी..

मुल्ला बड़े अच्छे वक्ता हो गए हैं. उसकी नेट्वर्किंग का कमाल तो है ही, आस्था चॅनल और संस्कार टीवी पर कई दिन चिपके रहना भी उनको एक्सपर्ट बना दिया है. आत्मा, परमात्मा, पाप पुण्य, धर्म-कर्म, नैतिकता, पूजा-पाठ आदि पर धड़ल्ले से बोलतें है मुल्ला. ज्योतिष, हीलिंग, योग की बातों में भी दखल रखने लगे हैं मुल्ला इन दिनों.
मानव धर्मी हो गए हैं मुल्ला आजकल. आयोजकों द्वारा सभाओं में बोलने के लिएमुल्ला को जगह जगह बुलाया जाता है ( ऑफ़ कोर्स अगेंस्ट पेमेंट--मुल्ला कि दरें कम हैं ना इसलिए ) . हिन्दू और जैनों में मुल्ला ज्यादा लोकप्रिय हो गएँ हैं, कारण एक विधर्मी जब आपके धर्म कि बातें करने लगता है तो अपना धर्म कुछ और महान लगने लगता है. बुजुर्ग लोग कहते भी हैं कि धर्म और बच्चे अपने और बीवियां/खाविंद हमेशा दूसरों के अच्छे लगते हैं. सुना होगा आपने-"हमारे धर्म की हर बात विज्ञानसम्मत है....उस दिन गुरूजी कह रहे थे............" या "बबलू को देख कर बस का कंडक्टर इतना खुश हुआ कि उसको गोद में उठा लिया...मेरी गोद से ले लिया........" या "तुम से तो अच्छे बगलवाले माथुर साहब हैं........." या " देखो मालती को कितना अच्छा कैरी करती है खुद को, क्या ड्रेसिंग सेंस है.....एक तुम हो गाँव की गंवार......." हाँ तो मैं भटक गया हूँ 'एज यूजुअल' सब्जेक्ट से.....

मुल्ला कोई भी काम करने से पहिले अपनी घड़ी ज़रूर उतारते हैं. चाहे भाषण देना हो या कुछ और करना हो......एक दफा मुल्ला की नयी 'ओमेगा' खो गयी, जो शायद किसी NRI महिला श्रोता ने विशिष्ठ बनने के लिए मुल्ला को भेंट चढाई थी. मुल्ला परेशान...गयी तो घड़ी कहाँ गयी. ? सब जगह खोज ली मगर कहीं नहीं मिली. पूछ ताछ भी की ...मगर नतीजा सिफर. मुल्ला ने मुझ से अपनी व्यथा कही. मैंने कहा, "मुल्ला लगता है तुम्हारे किसी श्रोता का काम है यह, क्योंकि धर्म सभाओं में धर्म का उल्लंघन करना आम बात है, जूते चप्पलों, छतों, चैन ,घड़ी, पर्स इत्यादि का इन्ही गेद्रिंग्स में 'चेंज ऑफ़ हेंड्स ' होता है........और भी बहुत कुछ होता है," मैंने तनिक शर्मा कर कह डाला था मेरे यार मुल्ला को.

फिर कहा मैंने, " मुल्ला ! आजकल तुम लगातार एक ही संस्था की सीमित श्रोताओं वाली सभाओं में बोल रहे हो तो चोर का क्ल्यू वहीँ से हासिल होगा. कल तुम 'चोरी' पर बोलो और श्रोताओं के चेहरे पढो, उम्मीद है कि क्ल्यू मिल जाये."

मुल्ला अगले रविवार जब मेरे पास आया तो 'ओमेगा' पहने हुए था. मुझे भी तारीफ़ की तशनगी सताने लगी. मैंने कहा, "मुल्ला मैंने सही मशविरा दिया था ना, देखो तुम्हारी 'ओमेगा' मिल गयी."

मुल्ला बोला, "यही तो तुम बुद्धिजीवियों की समस्या है. हर बात बेबात में श्रेय लूटना चाहते हो....भई इसका क्ल्यू जानने क्र खातिर मैं 'चोरी' पर बोला ज़रूर था,मगर उस दिन नहीं क्ल्यू तो मिला जब मैं ब्रहमचर्य और व्यभिचार पर तक़रीर कर रहा था.....मासटर तुम ठहरे पिंजरे के शेर मगर हो मेरे पक्के दोस्त, अब तुम से क्या छुपाना....मुझे ख़याल आ गया था उस रात मैं कहाँ गया था." [:)]

मैं ने अपना सिर ठोंक लिया था.

मुल्ला मस्का लगाते हुए बोला, "कुछ भी कहो, मासटर फार्मूला तुम्हारा ही काम आया था."

मुल्ला अपनी औकात पर आ गया था, जरूर मुझ से कुछ वसूलना था या कोई काम करवाना था. बुद्धिजीवी इसी तरह ठगे जाते हैं और वे भी इसी तरह ठगा करते हैं..अचानक सद्व्यवहार कि बौछार करके, सहमती का माहौल बना के.

और मैं भोला बुद्धिजीवी बहुत खुश हो गया था,

मुल्ला मेरी बोन चाइना की टी सेट की ऐसी-तैसी कर रहा था.....चाय कप से सौसर में डाल कर सुड़क रहा था, नाश्ता उड़ा रहा था. मैं बुद्धिजीवी नगण्य सा बना चुप चाप सुरक्षा-असुरक्षा, संबंधों, मैत्री, गिरते नैतिक मूल्यों इत्यादि पर सोच रहा था. मन के किसी कोने से आवाज़ आ रही थी मुल्ला आज कुछ मांगने वाला है. [:)]

अभिप्राय जीवन का...............

(१)
इन्द्रियानुभूति के परे
नहीं कर पा रहे हम
अनुभव जीवन को
अधूरा है हमारा
देखना
सुनना
कहना
सूंघना
स्पर्श करना.....

(२)
असीम गगन हो
बहती पवन हो
विस्तृत सागर हो
बहती नदिया हो
ऊँचा पर्वत हो
बसंत की बहार हो
पतझड़ की वीरानगी हो
विशाल महल हो
नन्हा कण धूल का हो
मुस्कुराना महकना फूल का हो
यह हो...वह हो....
दृष्टि पाती है देख
मात्र एक अंश,
प्रमुदित होतें हैं हम
बनाकर
उसीका सारांश
जो होता है स्वयम
अल्पांश........

(३)
देख रहे हैं हम
जीवन को
कुंजी-छिद्र से,
जान सकतें है कैसे हम
समग्रता उसकी
कुछ दिखता है
कुछ रह जाता है
अनदेखा.............

४)
इसी क्रम में
सुनतें हैं
सोचते हैं
पूछते हैं
क्या अभिप्राय है जीवन का ?

जब होते हैं
प्रसन्न हम
नहीं होता सम्मुख
प्रश्न यह,
होते हैं जब खिन्न
आन खडा होता है
प्रश्न यह,
जीवन जैसा ही
कितना सापेक्ष है
प्रश्न यह................?

(५)
जातें हैं जब
कार्यस्थल पर
लक्ष्य होता है
हमारे अर्जन का
परिभाषित सा..........
किन्तु जब भी होतें हैं हम
शरीक किसी जलसे में
होता नहीं कोई भी
उद्देश्य या परिमाप
हमारे आनन्द का
बस सहज में
लेते हैं हम आनन्द
उत्सव के हर निमिष का......

जीवन भी
कुछ यही है,
निराभिप्राय
निरुदेश्य सा,
लेते रहना
आनन्द प्रत्येक क्षण का
चैतन्यता के साथ
बस 'टाइम पास' सा
सहज स्वाभाविक
नैसर्गिक सा ...............

(६)
करना परिभाषित
जीवन अभिप्राय को
होगा केवल
बुद्धि विलास,
नहीं होगा जीना
होगा बस साँसे गिनना
गिनते रहना
करते हुए प्रतीक्षा
उनके रूक जाने की.........

(७)
शूल से
निकाला जाता है
शूल............
गणित में भी
किसी सवाल के हल तक
पहुँचने हेतु
माना जाता है कुछ.......
चलो
कह लेते हैं एक बार
अभिप्राय जीवन का है :
जानना जीवन के परिमाण को,
जानना उसकी
लम्बाई
चौडाई और
ऊँचाई को,
जानना उसकी पूर्ण गहराई को
ताकि
जान सके हम कि
नहीं चाहिए जीवन को
कोई अभिप्राय
कोई उद्देश्य...........
और छोड़ दें
हम इस प्रश्न को
होकर परे
प्रत्येक परिभाषा से ,
जीयें सजग हो
हर पल
हर क्षण..........


Tuesday, September 8, 2009

अधूरापन.....


पंछी
कभी न करता
संग्रह
अन्न का
जल का
उसके लिए
न फौज है
न पुलिस
न ही कचहरी
न ही वकील और जज
न डॉक्टर
न दवाएं
न पंडित
न मौलवी
न जनम-विवाह-मरण के
संस्कार
बस जीता है वह शान से
हर क्षण के अनुसार

मगर इन्सान
लगा है
परिग्रह की होड़ में
ग्रसित हो असुरक्षा से
बातें करता है दंभ भरी
कुदरत को काबू करने की
चाँद को छूने की
जीव की रचना कर पाने की
फ़िर भी ठोंकता है सर वक्त बेवक्त
रचता है स्वांग तरह तरह के
हर रात और हर दिन
जीने का करता ही दिखावा
मरता है क्षण क्षण
बस यही है
उसका अधूरापन.....

आत्म कथ्य एक साधक का ...........

(हाल ही में एक साधक से भेंट हुई , उसने जो कुछ कहा मुझे, उसे कलम बद्ध करने का एक प्रयास)

शस्त्र मैंने उठाये नहीं
ना किया लक्ष्मी से हेत
वीणा वादिनी वंदन किया
तिलक लगाई रेत.

मिलती है रोटी मुझे
नहीं मख्खन की चाह
भूखा कभी सोया नहीं
दिखाई प्रभु ने राह.

इसी आत्मविश्वास ने
बदला रूप था मेरा
तब से आज तलक मैंने
कभी ना मुंह था फेरा .

आई थी ठगने को माया
धर धर रूप अनेक
प्रभु ने रखा स्थिर मुझको
डिगाया ना क्षण भी एक.

मेरी साधना है शब्द की
अशब्द है मेरा इष्ट
रूप रंग रस गंध की
नहीं तृष्णा अब अवशिष्ट.

जीना साक्षी भाव से
क्षण क्षण में आनन्द
भावों को कर अग्रणी
चलते मेरे छन्द.

देह-अदेह पुन्न-पाप का
कर कर भेद प्रपंच
अपूर्ण ज्ञान गुरु देते रहे
हो आरूढ़ धर्म के मंच.

पाया जब से शून्य को
हुई शोध संपूर्ण
हृदय आनन्द पूरित हुआ
काज हुए परिपूर्ण.

स्वीकार समग्र को जब किया
रहे ना भेद विभेद
लहरों के संग जो बहे
उसको कैसी कैद.

लक्ष्य बांध मैंने किया
खुद को लक्ष्य हीन
सांसे स्वयम चलती रहे
सहज स्वभाव प्रवीण.

बुझेगी धूणी देह की
होता यूँ प्रतीत
पर आभामंडल में सदा
रहे गुंजरित मेरे गीत.

Sunday, September 6, 2009

रामायण का सार/ Ramayan Ka Saar..........

मत भागो
होकर विवेकशून्य
स्वर्ण मृग के पीछे,
लाँघ जायेगी सीता
लक्ष्मण रेखा,
कर लेगा रावण
अपहरण उसका..........

मित्रों !
बस यही है
रामायण का सार,
शेष समस्त है
भाषा का विस्तार,
मूर्धन्य कवि की
कलम का चमत्कार.......

Mat Bhago
Hokar vivekshunya
Swaranmarg ke peechhe
Langh jayegi Sita
Lakhsman Rekha,
Kar lega Ravan
Apharan uska..........

Mitron !
Bas yahi hai
Ramayan ka saar,
Shesh samast hai
Bhasha ka vistar,
Murdhanya kavi ki
Kalam ka chamatkar.....

Saturday, September 5, 2009

दीपक बाती और काजल.............

कथन बाती का :

दीपक !
पराई चिंता में
क्यों जला रहा है
ह्रदय अपना ?
जलते जलते
जल जाता है यूँ
तेरा हर सपना.

वचन दीपक का :

तिमिर के अस्तित्व से
ना हो ग्रसित
निछत्र धरती,
ऐ बाती !
सार्थक है यह
जलना मेरा,
सिद्धि उपहार
इस तप से पा
बन काजल
ज्योत नयन में
जगा सकूँ
ऐसा परम
कर्मफल मेरा.................

रास्ता : बाहर जंगल से निकलने का..........

रे शास्त्री !
रे हाफिज़ !
रे भिख्खु !
रे श्रमण !
रे पुरोहित !
रे आचार्य !
रे शिक्षक !
रे गुरु !
रट ली है तुमने
सब किताबें
जान लिया हर पैंतरा
मज़हबी दंगल का,
एहसास है मुझे
पहचानता तू
चप्पा चप्पा
इस जंगल का...................

मालूम है तुझे
रास्ता शेर की मांद तक का,
आसां है पहुंचना तेरा
अजगर की खोह तक का,
जानता है तू यह भी
किस झील का है
मीठा पानी
फलों से लदे
छायादार पेडों की
जगहा भी नहीं
तुझ से अनजानी...........

इल्म अपना
जोश-ओ-खरोश से
दौड़ दौड़ कर
दिखा रहा तू,
बन रहे हैं निशाँ
तेरे कदमों के
जहाँ जहाँ
जा रहा तू ............

हे इल्म के ठेकेदार !
अनजाने में नए मुसाफिर
भटक जाते हैं
रख कर पाँव
उन्ही निशानों पर
जब जब तू करता
हवा उनके सुलगते
अरमानों पर ...........

तुझे तो पड़ी है
बस अपने जै-जै कार की
भोग चंदे खैरात ओ जकात की
अपने पीछे लगी
मूर्खों की जमात की,
सुन कर भी
कर रहा अनसुनी तुम
उनकी बेताब रूह की कराहों को
अँधेरे से गूंजती
---रोशनी ! रोशनी ! की सदाओं को..........

अब भी चेत जा
ऐ परम ज्ञानी !
चल चल कर
बना दे गम्य
मात्र उस मार्ग को
जो ले जा सके
पथिक को बाहर
इस सघन
अरण्य से,
भूल कर मतिभ्रम
विभेद के
नगण्य से...........

थक गया हूँ मैं
ना रहा हौंसला
मुझ पर
अब चलने का,
बता दे !
बस बता दे !
रास्ता
बाहर
जंगल से
निकलने का..........

Thursday, September 3, 2009

सीप सागर और मोती...

(एक मनीषी के संग सत्संग में कुछ मोती मिले थे, शेयर कर रहा हूँ शब्द देकर.)

# # #
सागर का कथन :

सीप !
तू पगली है
अपने गर्भ में
पाल कर मोती,
बुलाती क्यूँ है
खुद की
मौत को....?

सीप के वचन :

जीना मरना तो
क्रम है
जीवन का,
परख ही है जो
रहती जिंदा,
बनता है
मोती
बहुमूल्य,
बंधता है
गले में जब
हृदय को बिंधा...

रे सागर !
क्यूँ अकुला रहा है यूँ ?
प्राण देकर भी
अपने,
उजालती हूँ
संसर्ग
मेरा और तेरा,
क्यूँ नहीं
समझता तूँ ....?

धरती, चन्दन और सुवास ......

धरती का कथन :

हे चन्दन !
बसा के रख
सुवास को तू
निज प्राण में
लाल मेरे !
क्यों स्वदेह को
घिसवा रहा
पत्थर निष्प्राण पे.......?

चन्दन के वचन :

क्यों हो रही है
व्यथित तूँ
ऐ मां !
घर्षण और क्षरण
चरम सीमा पर्यंत,
क्षय नहीं
यह तो है
हर्षोल्लास अनन्त...........

नहीं मिटा सकते
मेरे गुण धर्म
तनिक समझो ना
प्रक्रिया का मर्म
अजर अमर है आत्मा
सत्य देह का है
बस भ्रम
मिलन करने अस्तित्व से
हो रहा है
सहज परिश्रम.......

घिसा कर
कंचन काया को
होना है विराजित मुझे
प्रभु ललाट पर,
करूँगा प्रसारित
यश-सौरभ तुम्हारी
हे जननी !
भू के हर कपाट पर..........

Tuesday, September 1, 2009

उठ मंजिल मनुहार करै ..............(प्रभाती)

भोर भयो भाग्यो अंधियारों
पंछी जय जय कार करै,
रात बसेरो लियो बटोही
उठ मंजिल मनुहार करै ..............

झगड़ मथैनी दही बिलोवे
बालक धूम मचावै है,
धुओं बादल चूल्हों उठावे
दूध उफनतो जावे है,

कण कण प्राण जगे धरती पर
हर्ष उल्लास चहकार करै,
भोर भयो भाग्यो अंधियारों
पंछी जय जय कार करै...............

सोकर सपना देख रह्यो तूँ
घड़ी शुभ बीती जावै है
दश दिशी गूंज रही शहनाई
क्यों तू समय गवाएं है,

नज़र एक पाने को तेरी
कुदरत खूब सिंगार करै,
रात बसेरो लियो बटोही
उठ मंजिल मनुहार करै ............

दिल कोमल है फूल सो तेरो
निश्चय दृढ पत्थर सो है
प्रेम तेरो है सेज पुसब की
तेज़ तेरो ससतर सो है ,

करे आरती जलध तुम्हारी
गगन झुकै सतकार करै,
रात बसेरो लियो बटोही
उठ मंजिल मनुहार करै ...............

पथ दुरगम की चिंता क्यूँ है
साँचो साथ स्वयम को है
आतमा अजर अमर है तेरी
झूठो डर क्यूँ जम को है,

चार दिनों की है जिंदगानी
क्यूँ तूँ कपट ब्योहार करै,
रात बसेरो लियो बटोही
उठ मंजिल मनुहार करै ............