Wednesday, September 16, 2009

जोगी अटक गया (एक फक्कड़ टेर)...............

हो गयी उसको आस-निरास
जग गयी दिल में अंधी प्यास
अबहूँ आये ना कुछ भी रास
रहता गुम-सुम और उदास
किस में अटक गया
रे जोगी भटक गया !

बस कांटे खुद के झाड़
बनायीं बिरथ ही तू ने बाड़
सबद है झूठी थोथी राड़
कि दे तू पोथी पन्ने फाड़
जेहन तेरा सटक गया
रे जोगी भटक गया !

मन के बंद पटल तू खोल
यह तेरे झूठे से हैं बोल
करे ना खुद का तू क्यूँ मोल
जगत से कैसी झालमझोल
आइना चटक गया
रे जोगी भटक गया !

सुई का नहीं साधा निसान
फजूल में क्यूँ रहता परेसान
सच से रहा सदा अनजान
करता रहा तू बस एहसान
धागा अटक गया
रे जोगी भटक गया !

लीन्ही जप माला तू हाथ
अंतर मन का रहा ना साथ
तेरी निरथक है सब बात
कि जैसे सूखे सूखे पात
बीच में लटक गया
रे जोगी भटक गया !

किसी ने पूछी जात ना पांत
ज्ञान को देखा..देखा ना गात
जोगी को मिल गया ऐसा साथ
कि जैसे बिन बादल बरसात
मनुआ मटक गया
रे जोगी भटक गया.......

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