Saturday, September 12, 2009

बाकी तो बस राम ही राखे ~!

रहते हैं हम एक मकाँ में
कहने को परिवार हैं हम
समझ गये हम इक दूजे को
करते छद्म व्यवहार हैं हम
क्यों ना हम अंतर में झांके
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

मुस्कान हमारी एक छलावा
मीठी बातें हैं बहकावा
छुरी कतरनी मन में चलती
प्रेम भाव का करें दिखावा
देने से पहले ; क्यूँ नहीं चाखें
बाकी तो बस राम ही राखे~!

बातें करते हम एकत्व की
करें हरक़तें हम पृथकत्व की
दूजे की नहीं चिंता हम को
स्वार्थपरता है बात महत्त्व की
रिश्तों की यूँ काटें शाखें
बाकी तो बस राम ही राखे~!

अहम् पोषण प्रमुख मंतव्य है
ना पथ है ना ही गंतव्य है
जुदा है डफली राग जुदा है
कैसे ये संकीर्ण वक्तव्य है
चुन्धियाई है क्यूँ ये आँखें
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

पर उपदेश कुशल बहुतेरे
गणित मिलाते तेरे मेरे
संशय घोर जमाये डेरे
निज हित के लगते हैं फेरे
मैं परितृप्त, तेरे हो फाके
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

अँधा दर्पण अँधी सूरत
दृष्टि में है भंगित मूरत
ह्रदय भ्रमित है कुंठित है मन
रूह प्यासी और प्यासा है तन
कैसे ये जीवन के खाके
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

यारी में क्योंकर यह शर्त है
एक हैं हम तो क्यूँ यह परत है
रिश्तों की बुनियाद गलत है
हार जीत की क्यूँ यह लड़त है
रोयें क्यूँ ?... मुस्काएं गा के
बाकी तो बस राम ही राखे ~!

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