Sunday, September 13, 2009

समूह कि मानसिकता............

मुझे इस कविता के भाव बहुत आकर्षित किये। बिना मूल कृतिकार की अनुमति से मैं ने इसका देवनागरी लिपि में कुछ संशोधनों के साथ पुनर्गठन किया है....मूल भाव जस के तस है, भाषा का प्रारूप भी लगभग वैसा ही है....अनु जी स्वयम भी यदि इसका पुनरवलोकन करते तो ऐसा ही कुछ करते.....मैं उनसे क्षमा प्रार्थी हूँ कि उनकी अनुमति के बिना उनकी रचना पर मैंने संशोधन करने का दुस्साहस किया है, अगर उन्हें ऐतराज़ होगा तो मैं सादर इसे 'delete' कर दूंगा.....आशा है वे मेरे मनोभावों को समझेंगे.

जो हमें बावरा कहतें है,
वो हमें आसरा क्या देंगे ?
मर मर के सींचा जिनको हमने ,
वो फसलें आज जला देंगे .

मेरी हर बात पे जो भी हंसते है,
मुझे भीख में क्यों यूँ दुआ देंगे ?
कुदरत का कहा खलता जिनको
वो अक्स को मेरे मिटा देंगे.

जिनका दिल खाली खाली है
दे कर भी हम को क्या देंगे ?
मेरे आंसू और मेरे ग़म को,
तरकीबों से और बढ़ा देंगे.

"कोई मन्दिर में नही रहता अब "
यूँ कहने पे मेरे बद दुआ देंगे ,
चुभते तानों से मेरी इज्जत पे,
नास्तिक का चिह्न बना देंगे .

जिस गली से मैं गुजरा फिर से
तमाशा वो कोई बना देंगे ,
जिल्लत से दबे मेरे कन्धों पर
बोझा कुछ और चढा देंगे.

कुछ बहलाकर कुछ फुसलाकर
मरने की सलाह मुझको देंगे,
कभी भूल के जो यह सांस भरूं
मुझको फिर याद दिला देंगे.

मेरा इन्सां होना जिन्हें गवारा ना हो,
किसी तरहा भी मुझे हरा देंगे ,
मेरी हार पे जश्न मनाएंगे
मेरी हर इक आस भुला देंगे .

जब तक रहूँगा जिंदा मैं
मुझे तरहा तरहा सतायेंगे
मरने पे समाधी पर मेरे
वो मंदिर भव्य बनायेंगे.

महावीर को कीलें ठोंकी थी
शंकर को ठुकराया था
दयामूर्ति यीशु मसीह को
लोगों ने शूली पर चढाया था.

समूह की यह मानसिकता है
असुरक्षा स्वार्थ अतिशयता है
कैसे मुझे बर्दाश्त करेंगे वो
केवल सच मेरी आवश्यकता है.........

No comments:

Post a Comment