Thursday, September 3, 2009

सीप सागर और मोती...

(एक मनीषी के संग सत्संग में कुछ मोती मिले थे, शेयर कर रहा हूँ शब्द देकर.)

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सागर का कथन :

सीप !
तू पगली है
अपने गर्भ में
पाल कर मोती,
बुलाती क्यूँ है
खुद की
मौत को....?

सीप के वचन :

जीना मरना तो
क्रम है
जीवन का,
परख ही है जो
रहती जिंदा,
बनता है
मोती
बहुमूल्य,
बंधता है
गले में जब
हृदय को बिंधा...

रे सागर !
क्यूँ अकुला रहा है यूँ ?
प्राण देकर भी
अपने,
उजालती हूँ
संसर्ग
मेरा और तेरा,
क्यूँ नहीं
समझता तूँ ....?

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