धरती का कथन :
हे चन्दन !
बसा के रख
सुवास को तू
निज प्राण में
लाल मेरे !
क्यों स्वदेह को
घिसवा रहा
पत्थर निष्प्राण पे.......?
चन्दन के वचन :
क्यों हो रही है
व्यथित तूँ
ऐ मां !
घर्षण और क्षरण
चरम सीमा पर्यंत,
क्षय नहीं
यह तो है
हर्षोल्लास अनन्त...........
नहीं मिटा सकते
मेरे गुण धर्म
तनिक समझो ना
प्रक्रिया का मर्म
अजर अमर है आत्मा
सत्य देह का है
बस भ्रम
मिलन करने अस्तित्व से
हो रहा है
सहज परिश्रम.......
घिसा कर
कंचन काया को
होना है विराजित मुझे
प्रभु ललाट पर,
करूँगा प्रसारित
यश-सौरभ तुम्हारी
हे जननी !
भू के हर कपाट पर..........
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