Saturday, September 19, 2009

दास्ताँ खूनी (?) रिश्तों की.......

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खूँ के रिश्तों की या खूनी रिश्तों की बात करते हो
ज़ख्मी हो मगर हस्ती-ए-माशरे की बात करते हो.

ज़ख्म होना है बदन को नश्तर से छुआ करते हो
दर्द सह कर भी मुआफ करने की बात करते हो .

जब तलक ज़रुरत थी तेरा साथ निभाते थे लोग
हो गए तुम नकारा किस एहसां की बात करते हो.

चुनना ओ निभाना सांकलों को ना था तेरे बस में
आजाद हो मुकम्मल क्यूँ कफस की बात करते हो.

खून अपने से सींचा था खून-आलूदा इन रिश्तों को
जीने लगे हो खुद पे क्यों मरने की बात करते हो.

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