Saturday, September 5, 2009

रास्ता : बाहर जंगल से निकलने का..........

रे शास्त्री !
रे हाफिज़ !
रे भिख्खु !
रे श्रमण !
रे पुरोहित !
रे आचार्य !
रे शिक्षक !
रे गुरु !
रट ली है तुमने
सब किताबें
जान लिया हर पैंतरा
मज़हबी दंगल का,
एहसास है मुझे
पहचानता तू
चप्पा चप्पा
इस जंगल का...................

मालूम है तुझे
रास्ता शेर की मांद तक का,
आसां है पहुंचना तेरा
अजगर की खोह तक का,
जानता है तू यह भी
किस झील का है
मीठा पानी
फलों से लदे
छायादार पेडों की
जगहा भी नहीं
तुझ से अनजानी...........

इल्म अपना
जोश-ओ-खरोश से
दौड़ दौड़ कर
दिखा रहा तू,
बन रहे हैं निशाँ
तेरे कदमों के
जहाँ जहाँ
जा रहा तू ............

हे इल्म के ठेकेदार !
अनजाने में नए मुसाफिर
भटक जाते हैं
रख कर पाँव
उन्ही निशानों पर
जब जब तू करता
हवा उनके सुलगते
अरमानों पर ...........

तुझे तो पड़ी है
बस अपने जै-जै कार की
भोग चंदे खैरात ओ जकात की
अपने पीछे लगी
मूर्खों की जमात की,
सुन कर भी
कर रहा अनसुनी तुम
उनकी बेताब रूह की कराहों को
अँधेरे से गूंजती
---रोशनी ! रोशनी ! की सदाओं को..........

अब भी चेत जा
ऐ परम ज्ञानी !
चल चल कर
बना दे गम्य
मात्र उस मार्ग को
जो ले जा सके
पथिक को बाहर
इस सघन
अरण्य से,
भूल कर मतिभ्रम
विभेद के
नगण्य से...........

थक गया हूँ मैं
ना रहा हौंसला
मुझ पर
अब चलने का,
बता दे !
बस बता दे !
रास्ता
बाहर
जंगल से
निकलने का..........

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