Wednesday, September 23, 2009

सिला दे रहा कोई...........

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ज़िन्दगी के हर लम्हे का हिसाब ले रहा कोई
गुनाह जो ना किये उसकी सजा दे रहा कोई.

क्यों आया था जमीं पर मकसद था क्या मेरा
हो के मुंसिफ सवालात को अंजाम दे रहा कोई.

लग गयी जो आग अश्कों से क्या कसूर मेरा
चस्मा-ए-मोम से शोलों को बुझा दे रहा कोई.

वो कहते थे के हम से ही रोशन है महफिल
कलाम-ए-रकीब को क्यों दाद दे रहा कोई.

गैरों की बात क्या कहें अपनों की दास्ताँ है
मुठ्ठियों में भरी खाक से सिला दे रहा कोई.

(बकलम : विनेश राजपूत )

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