Monday, September 14, 2009

हिंदी के विकास में हीन ग्रंथि पाल कर बाधक ना बने..

आज बचपन में एक अध्यापक महोदय से सुनी बात समृति में आ रही है, "हिंदी भारतीय भाल की बिंदी है." मैं अपने प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक स्वर्गीय हरख चन्द जी प्रजापत को प्रणाम करता हूँ, जो यह वाक्य उच्चारित करते थे और हिंदी के प्रति गर्व एवम अनुराग की भावना हम विद्यार्थियों में अभिपूरित करते रहते थे. उन्ही के मार्गदर्शन का परिणाम है कि, 'साहित्य विधा' का औपचारिक अध्ययन मैंने नहीं किया किन्तु भाषा और साहित्य का आनन्द मैं अनवरत ले पा रहा हूँ. मेरा अनुभव यह कहता है कि बच्चों को प्रारंभ से ही हिंदी का ज्ञान कराना, हिंदी-संस्कृत वांग्मय के गौरवपूर्ण भंडार पर गर्व करने की प्रेरणा देना, उन्हें बताना कि हिंदी विश्व की किसी भी भाषा से कम नहीं है, हिंदी और भारत की सेवा के लिए सर्वाधिक सार्थक प्रयास होगा. हिंदी जानना, बोलना, लिखना और पढना बच्चों के लिए गर्व कि बात होनी चाहिए, ना जाने क्यों माता-पिता बच्चों के साथ अंग्रेजी में गिट-पिट करते रहते हैं. उन्हें प्रेरित करते हैं यह समझ मस्तिस्क में उत्पन्न करने हेतु कि हिंदी अपनाना पिछडेपन का
प्रतीक है। कभी कभी हिंदी भाषी लोग भी बहुत गर्व से कहते हैं, "ना बाबा मुझे हिंदी नहीं आती." बहुत ही दुःख की बात है यह.

व्यावसायिक दृष्टी से भी हिंदी का ज्ञान अत्यावश्यक है. विश्व का दूसरा बड़ा उपभोक्ता वर्ग हिन्दीभाषी है, जिन्हें इस वैशवीकरण और बाज़ारप्रणाली के दौर में उत्पादों को बेचा जाना है. विपणन और विज्ञापन के लिए हिंदी अपनाना अत्यावश्यक हो गया है. देखिये-----'कूल कूल' से पहिले 'ठंडा-ठंडा' कहा जाता है विज्ञापन में. कंप्यूटर के माध्यम से भी हिंदी इक्कीसवीं शताब्दी की सफल अभिव्यक्ति का आधार बन चुकी है. वे सभी देश अपनी भाषा को ही ज्ञानात्मकता और भावनात्मकता का अनिवार्य आधार बना चुके हैं, जिन्होंने विश्व में अपना स्थान बनाया है. वैज्ञानिक "टेम्पर" के समस्त कारकों को दूर तक स्वयम में ढालती भाषा हिंदी, हमारी संस्कृति, ज्ञान, दर्शन और अध्यात्म की भी विश्व में संवाहक हो रही है. विश्व कि व्यापारिक विवशता उसके महत्त्व को स्वीकार कर रही है.
हिंदी भाषा देश और विदेश के विस्तृत फलक पर स्वयम बढ़ रही है. आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम उसके विकास और प्रसार में किसी हीन ग्रंथि के चलते बाधक ना बने. अपनी भाषा ही समस्त 'उन्नति का मूल' है., यह आधुनिक हिंदी भाषा के निर्माता भारतेंदु जी ने एक शताब्दी पूर्व ही कहा था, वही हमें आज समझना है.


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