Tuesday, September 8, 2009

आत्म कथ्य एक साधक का ...........

(हाल ही में एक साधक से भेंट हुई , उसने जो कुछ कहा मुझे, उसे कलम बद्ध करने का एक प्रयास)

शस्त्र मैंने उठाये नहीं
ना किया लक्ष्मी से हेत
वीणा वादिनी वंदन किया
तिलक लगाई रेत.

मिलती है रोटी मुझे
नहीं मख्खन की चाह
भूखा कभी सोया नहीं
दिखाई प्रभु ने राह.

इसी आत्मविश्वास ने
बदला रूप था मेरा
तब से आज तलक मैंने
कभी ना मुंह था फेरा .

आई थी ठगने को माया
धर धर रूप अनेक
प्रभु ने रखा स्थिर मुझको
डिगाया ना क्षण भी एक.

मेरी साधना है शब्द की
अशब्द है मेरा इष्ट
रूप रंग रस गंध की
नहीं तृष्णा अब अवशिष्ट.

जीना साक्षी भाव से
क्षण क्षण में आनन्द
भावों को कर अग्रणी
चलते मेरे छन्द.

देह-अदेह पुन्न-पाप का
कर कर भेद प्रपंच
अपूर्ण ज्ञान गुरु देते रहे
हो आरूढ़ धर्म के मंच.

पाया जब से शून्य को
हुई शोध संपूर्ण
हृदय आनन्द पूरित हुआ
काज हुए परिपूर्ण.

स्वीकार समग्र को जब किया
रहे ना भेद विभेद
लहरों के संग जो बहे
उसको कैसी कैद.

लक्ष्य बांध मैंने किया
खुद को लक्ष्य हीन
सांसे स्वयम चलती रहे
सहज स्वभाव प्रवीण.

बुझेगी धूणी देह की
होता यूँ प्रतीत
पर आभामंडल में सदा
रहे गुंजरित मेरे गीत.

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