Friday, September 11, 2009

अभिप्राय जीवन का...............

(१)
इन्द्रियानुभूति के परे
नहीं कर पा रहे हम
अनुभव जीवन को
अधूरा है हमारा
देखना
सुनना
कहना
सूंघना
स्पर्श करना.....

(२)
असीम गगन हो
बहती पवन हो
विस्तृत सागर हो
बहती नदिया हो
ऊँचा पर्वत हो
बसंत की बहार हो
पतझड़ की वीरानगी हो
विशाल महल हो
नन्हा कण धूल का हो
मुस्कुराना महकना फूल का हो
यह हो...वह हो....
दृष्टि पाती है देख
मात्र एक अंश,
प्रमुदित होतें हैं हम
बनाकर
उसीका सारांश
जो होता है स्वयम
अल्पांश........

(३)
देख रहे हैं हम
जीवन को
कुंजी-छिद्र से,
जान सकतें है कैसे हम
समग्रता उसकी
कुछ दिखता है
कुछ रह जाता है
अनदेखा.............

४)
इसी क्रम में
सुनतें हैं
सोचते हैं
पूछते हैं
क्या अभिप्राय है जीवन का ?

जब होते हैं
प्रसन्न हम
नहीं होता सम्मुख
प्रश्न यह,
होते हैं जब खिन्न
आन खडा होता है
प्रश्न यह,
जीवन जैसा ही
कितना सापेक्ष है
प्रश्न यह................?

(५)
जातें हैं जब
कार्यस्थल पर
लक्ष्य होता है
हमारे अर्जन का
परिभाषित सा..........
किन्तु जब भी होतें हैं हम
शरीक किसी जलसे में
होता नहीं कोई भी
उद्देश्य या परिमाप
हमारे आनन्द का
बस सहज में
लेते हैं हम आनन्द
उत्सव के हर निमिष का......

जीवन भी
कुछ यही है,
निराभिप्राय
निरुदेश्य सा,
लेते रहना
आनन्द प्रत्येक क्षण का
चैतन्यता के साथ
बस 'टाइम पास' सा
सहज स्वाभाविक
नैसर्गिक सा ...............

(६)
करना परिभाषित
जीवन अभिप्राय को
होगा केवल
बुद्धि विलास,
नहीं होगा जीना
होगा बस साँसे गिनना
गिनते रहना
करते हुए प्रतीक्षा
उनके रूक जाने की.........

(७)
शूल से
निकाला जाता है
शूल............
गणित में भी
किसी सवाल के हल तक
पहुँचने हेतु
माना जाता है कुछ.......
चलो
कह लेते हैं एक बार
अभिप्राय जीवन का है :
जानना जीवन के परिमाण को,
जानना उसकी
लम्बाई
चौडाई और
ऊँचाई को,
जानना उसकी पूर्ण गहराई को
ताकि
जान सके हम कि
नहीं चाहिए जीवन को
कोई अभिप्राय
कोई उद्देश्य...........
और छोड़ दें
हम इस प्रश्न को
होकर परे
प्रत्येक परिभाषा से ,
जीयें सजग हो
हर पल
हर क्षण..........


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