Tuesday, August 10, 2010

मंत्र मुग्ध...

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हो जाना
मंत्रमुग्ध
अभाव है
चैतन्य का,
हो जाए
यदि
विस्तार
इस बेहोशी स़ी
मुग्धता का....

अचेतनता
होती है
एक ओढी
हुई सी
शांति
जिसका
चीर हरण
करने
कायम हैं
दुशासन
विकार
अवस्थित
हम खुद में...

देखा तुमको,
मुग्ध हुआ
मैं,,,,,,,
दग्ध हुआ
तन,
मन
किन्तु
जुड़ के
मन से
तुम्हारे
अभिशांत हुआ
परितृप्त हुआ,
होश ने ली
अंगडाई
तुम से मिली
उर्जा ने
दे दी गति
कदमों को मेरे...

यह देना
यह पाना
करता है
द्विगुणित
ऊर्जाओं को
ले आता है
करीब
हम को
स्वयं
हम से,
उठता है
स्वतः
कदम
जागरूकता की
दिशा में,
जहां होतें हैं
मुग्ध हम
स्वयं
स्वयं पर

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